सोच को बिगाड़ने में होता है अहम का हाथ

Thursday, Jul 11, 2019 - 07:30 PM (IST)

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अहंकार एवं बड़ेपन की भावना जीवन की अजीब विसंगति है। मनुष्य चाहकर भी अहं को झुका नहीं पाता, अहं की पकड़ को ढीली नहीं कर पाता। यह जानते हुए भी कि स्वयं को बड़ा मानने का अहं जीवन के हर मोड़ पर व्यक्ति को अकेला कर देता है। हर मनुष्य में अहंकार की मनोवृत्ति होती है। वह दूसरे को नीचा दिखाकर अपने को ऊंचा दिखाना चाहता है। आदमी का सबसे बड़ा रस इस बात में होता है कि और सब छोटे बने रहें, मैं बड़ा बन जाऊं। कितना स्वार्थी एवं संकीर्ण बन गया इंसान कि उसे अपने सुख के सिवाय कुछ और नजर ही नहीं आता। स्वयं की अस्मिता को ऊंचाइयां देने के लिए वह कितनों के श्रम का शोषण, भावनाओं से खिलवाड़ एवं सुख का सौदा करता है। उसकी अंतहीन महत्वाकांक्षाएं पर्यावरण तक को जख्मी बना रही हैं। आखिर इस अनर्थकारी परम्परा एवं सोच पर कैसे नियंत्रण पाया जाए?

बहुत अधिक अहं का भाव हमारी दुनिया को छोटा करता रहा है। भीतरी और बाहरी दोनों ही दुनिया सिमटती रही हैं। तब हमारा छोटा-सा विरोध गुस्सा दिलाने लगता है। छोटी-सी सफलता अहंकार बढ़ाने लगती है। थोड़ा-सा दुख अवसाद का कारण बन जाता है। कुल मिलाकर सोच ही बिगड़ जाती है। अमरीकी अभिनेता जॉर्ज क्लूने कहते हैं, ‘‘अपने ही बोले हुए को सुनते रहना ज्यादा सीखने नहीं देता।’’

जीवन में कई बार ऐसा ही होता है, जब हमें अपने आप पर बहुत गर्व होता है। हमें अपने स्वाभिमानी होने का एहसास होता है पर धीरे-धीरे यह स्वाभिमान अहंकार का रूप लेने लगता है। हम अहंकारी बन जाते हैं और दूसरों के सामने दिखावा करने लगते हैं। यह भूल जाते हैं कि हम चाहें कितने ही सफल क्यों न हो जाएं, व्यर्थ के अहंकार और झूठे दिखावे में पडऩा हमें शॄमदा कर सकता है। फिर भी मनुष्य की यह दुर्बलता कायम है कि उसे कभी अपनी भूल नजर नहीं आती जबकि औरों की छोटी-सी भूल उसे अपराध लगती है। काश! पड़ोसी के छत पर बिखरी गंदगी का उलाहना देने से पहले हम अपने दरवाजे की सीढिय़ां देख लें कि कितनी साफ हैं। सच तो यह है कि अहं ने सदा अपनी भूलों का दंड पाया है।

Jyoti

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