धर्म में साम्प्रदायिक संकीर्णता की कोई जगह नहीं

Saturday, Mar 21, 2020 - 04:55 PM (IST)

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एक बार हकीम अजमल खां, डा. अंसारी तथा उनके कुछ और मुस्लिम मित्र स्वामी श्रद्धानंद से मिलने गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार पहुंचे। स्वामीजी ने उनका यथोचित सत्कार किया। फिर उन्होंने अपने एक प्रमुख शिष्य से कहा कि वह अतिथियों के भोजनादि की व्यवस्था देखे। शिष्य ने व्यक्तिगत रूप से सभी अतिथियों को प्रेम से भोजन कराया। भोजनादि से निवृत्त होने के बाद अतिथियों ने पुन: स्वामीजी से मिलने की इच्छा जताई ताकि उनसे बातचीत हो सके। 

उस समय स्वामी जी यज्ञशाला में थे। उनके तमाम शिष्य वहां उपस्थित थे। वहां हवन आदि कार्य चल रहे थे। हकीम साहब और उनके साथियों को बेहिचक वहां ले जाया गया। स्वामीजी ने उस समय इन लोगों की ओर ध्यान नहीं दिया। वे पूरे मनोयोग से अपने कार्य में लगे रहे। इन अतिथियों ने भी इस बात का पूरा ख्याल रखा कि वहां चल रही प्रक्रिया में किसी तरह की बाधा न आए। हवन समाप्त होने के बाद स्वामीजी ने इन अतिथियों को आदर सहित उचित आसन पर बिठाया और फिर उन लोगों की बातचीत शुरू हुई।

थोड़ी देर बाद अतिथियों में से किसी ने कहा, ''स्वामीजी, यह हमारी नमाज का समय है। कृपया कोई ऐसा स्थान बताएं, जहां हम सभी नमाज पढ़ सकें।"

 स्वामीजी ने कहा, ''हवन समाप्त हो चुका है। यज्ञशाला खाली है। यह यज्ञशाला वंदना के लिए है। वंदना चाहे पूजा के रूप में हो या नमाज के रूप में, कोई फर्क नहीं पड़ता। आप लोग यहां बगैर किसी परेशानी के नमाज पढ़ सकते हैं।"

अतिथियों ने आराम से वहां नमाज पढ़ी और स्वामीजी का आभार प्रकट किया। 

स्वामीजी की इस उदारता के फलस्वरूप मुस्लिम बंधुओं ने दिल्ली की जामा मस्जिद में बुलाकर उनका प्रवचन करवाया। ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि धर्म मनुष्य को बड़ा बनाने के लिए है और इसलिए उसमें सांप्रदायिक संकीर्णता के लिए जगह नहीं बनने देनी चाहिए।

Jyoti

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