Maharishi Dayanand Saraswati Jayanti 2021: जग का कर गया बेड़ा पार मस्ताना योगी

Monday, Mar 08, 2021 - 09:55 AM (IST)

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Maharishi Dayanand Saraswati Jayanti 2021: सन् 1824 में जब महर्षि दयानंद जी का जन्म हुआ तब पिता श्री कृष्ण जी तिवारी ने उनका नाम रखा-मूल शंकर। क्या  उनके मन  में कहीं लेशमात्र भी यह विचार था कि अपने मूल में शिवत्व को धारण करके यह बालक सचमुच मूल शंकर बनेगा? स्वामी पूर्णानंद जी ने जब संन्यास के समय इन्हें दीक्षा दी तो नाम रखा- दयानंद। क्या उन्हें मालूम था कि यह बच्चा दया और आनंद का सागर, वेदों का उद्धारक बनेगा और नारी सम्मान का रक्षक और पक्षधर भी बनेगा?

Maharishi Dayanand Saraswati: 13 वर्ष के एक बालक ने जब अपने पिता के कहने पर शिवरात्रि का व्रत रखा और रात्रिकाल में एक चूहे को शिवलिंग पर उछल-कूद करते हुए और प्रसाद खाते हुए देखा तो उन्हें लगा कि सर्वशक्तिशाली कहलाए जाने वाले शिव इस पाषाण प्रतिमा में कैसे हो सकते हैं?

Maharshi Dayanand Saraswati life history: क्या  निरंतर चलायमान समय के किसी छोटे-से क्षण को इतना-सा भी आभास था कि छोटे-छोटे प्रश्नों और जिज्ञासाओं से भरा यह नन्हा बालक एक दिन महामनस्वी बनकर समस्त विश्व को सत्यार्थ प्रकाश देगा? एक छोटी-सी घटना ने क्यों उसको पूर्ण शंकर बनाने की ओर अग्रसर किया?
आज हम  ऐसे अनेक  प्रश्नों से  जूझ  रहे हैं और स्वयं को निरुत्तर पाते हैं लेकिन जब मूल शंकर को कहीं उत्तर नहीं मिला तो 22 वर्ष की आयु में वह अपने घर से एक सच्चे गुरु की तलाश में निकल पड़े। 14 वर्ष तक घूमने के बाद यह खोज मथुरा में गुरुवर विरजानंद जी की कुटिया में जाकर समाप्त हुई।

जब गुरु जी ने पूछा, ‘‘कौन है?’’ तो उत्तर मिला,‘‘यही तो जानने मैं आया हूं कि मैं कौन हूं।’’

गुरु जी को लगा कि जिस सच्चे शिष्य की तलाश उन्हें थी, वह आ गया है। दिव्य गुरु का साथ पाकर दिव्य शिष्य अध्ययन में रत हो गया। तीन साल बाद जब शिक्षा पूरी होने लगी तो गुरुदक्षिणा के रूप में लौंग लेकर आए, परंतु गुरु जी ने जब गुरु दक्षिणा के रूप में वेद प्रचार की चाह रखी तो प्रसन्नतापूर्वक दयानंद ने भी अपना सर्वस्व वेद प्रचार के लिए दे दिया।
उदयपुर के महाराणा ने एक लिंगी महादेव मंदिर की गद्दी देने का प्रस्ताव रखकर उन्हें वेद मार्ग से हटाने के लिए प्रलोभन देते हुए कहा कि यह खंडन करना बंद कीजिए, हम आपको धन में तौल देंगे तो स्वामी जी ने कहा,‘‘यदि धन ही चाहता तो वह मेरे पिता जी के पास भी बहुत था।

कर्णवास  में जब राव कर्ण सिंह का स्वामी जी के साथ विवाद हुआ और वह तलवार लेकर उन्हें  मारने के लिए  उद्धत हुआ तो स्वामी जी ने उसकी तलवार के दो टुकड़े करके उसके अहंकार को चूर-चूर कर दिया। यह थी उनके ब्रह्मचर्य की शक्ति ।

Maharshi Dayanand Saraswati achievements: महर्षि  दयानंद सरस्वती ने सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी की। कहा जाता है कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से दुखी और परेशान होकर स्वामी जी से मिली और कहा कि ये मुझे अबला समझ कर मेरा राज्य हड़पना चाहते हैं तो आपने उसे दिलासा देते हुए कहा,‘‘आप चिंता मत करें। पूरा भारतवर्ष आपके साथ रहेगा और यह हुआ भी। मरते दम तक झांसी की रानी अकेली नहीं हुईं।

Maharshi Dayanand Saraswati Jayanti Significance:  यही नहीं, सन् 1875 में जब इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की तब स्पष्ट रूप से कह दिया कि न तो मेरी कोई मूर्ति बनेगी न ही मेरी पूजा की जाएगी। मैं सच्चे वेदों और सच्चे ईश्वर का ज्ञान कराने आया हूं जो हमारी प्राचीन परंपरा है। इसके अतिरिक्त और क्या चाहता था भारत मां का यह  महान सपूत? स्वराज्य की स्थापना, बस यही तो उसकी इच्छा थी।

आज जब हम उन्हें याद करते हैं तो क्या हम अपने अंदर इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते हैं? क्या हम स्वामी जी के बताए हुए रास्ते पर चल रहे हैं? ज्ञान का वह अथाह समुद्र था जिसने सामाजिक त्रुटियों को सुधारने में अपना पूरा जीवन लगा दिया लेकिन हम आज भी कूपमंडूक बने निजी स्वार्थों की पूर्ति में जुटे हैं।

Maharshi Dayanand Saraswati:  सन् 1863 में घर का परित्याग करने वाले इस महान ऋषि के पास केवल 19 वर्ष थे। वेदाध्ययन करना, काशी शास्त्रार्थ में वेदों के प्रामाणिक साक्ष्य देकर 1867 में हरिद्वार में पाखंड खंडनी पताका फहराना, वेदों का भाष्य करके उसे जन-जन तक पहुंचाना, नारी जाति के सम्मान तथा स्वदेश के लिए संघर्ष करना, आर्यसमाज की स्थापना करना और राजस्थान,पंजाब ही नहीं,भारत के प्रांत-प्रांत में घूमकर लोगों को अपनी सांस्कृतिक धरोहर के विषय में,बताते हुए आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनने के लिए प्रेरित और अनुप्राणित करना- अनेक कार्य 19 वर्षों के कठिन परिश्रम का परिणाम हैं।

 

Niyati Bhandari

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