भगवान पार्श्वनाथ ने सींचा जैन धर्म
punjabkesari.in Tuesday, Sep 08, 2020 - 05:24 PM (IST)
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जैन मान्यतानुसार एक कालचक्र के दो भाग होते हैं : अवसर्पिणी और उत्सर्पपिणी। प्रत्येक सर्पिणी में 24 तीर्थंकर होते हैं। वर्तमान अवसॢपणी के चतुर्थ आरे (चक्र) में 24 तीर्थंकर हो चुके हैं। इनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभवेद तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर थे। भगवान पार्श्वनाथ इस क्रम में तेइसवें तीर्थंकर हुए हैं। ये भगवान महावीर से अढ़ाई सौ वर्ष पूर्व हुए थे। भगवान पार्श्वनाथ ने भी इस धरा पर जन्म लेकर अज्ञानता के अंधकार में भटक रहे मनुष्य को धर्म का मार्ग दिखलाया।
जैन धर्म पूर्व जन्म तथा पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। इस धर्म की मान्यता है कि आत्मा विभिन्न योनियों में जन्म लेती हुई अपने कर्मों का प्रतिफल प्राप्त करती है। कर्मों की गति से न कोई देव अछूता है. न मनुष्य। जब आत्मा अपने समस्त कर्मों को क्षय कर लेती है तो वह सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो जाती है। पार्श्वनाथ को यह पूर्णता अर्थात तीर्थंकरत्व प्राप्त करने में सात जन्म लगे। वह सात जन्मों तक निरंतर राग-द्वेष, काम-क्रोध, वैर आदि को जीत कर समत्व साधने का महान पुरुषार्थ करते रहे और अपने सातवें भव में तीर्थंकर गोत्र में जन्म लिया। उस समय वाराणसी नगर में अश्वसेन राजा का राज्य था। अश्वसेन परम धार्मिक तथा उदार हृदय थे। ऐसी ही धर्मशील उनकी पत्नी वामादेवी थीं।
पौष कृष्ण दसवीं को रानी वामादेवी ने एक दिव्य पुत्र को जन्म दिया। राजा अश्वसेन तथा वामादेवी ने अपने पुत्र का नाम पार्श्वनाथ रखा। पार्श्वनाथ के लालन-पालन के लिए पांच धातृयां रखी गईं।
पार्श्वनाथ को बचपन से ही तीन ज्ञान थे, लेकिन यह अश्वसेन नहीं जानते थे। उन्होंने पार्श्वनाथ को शिक्षा प्रदान करने के लिए वाराणसी के एक महाविद्वान को बुलाया परंतु विद्वान ने जब बालक पार्श्वनाथ की बौद्धिक योग्यता देखी तो राजा से कहने लगा, ‘‘अद्भुत। यह बालक परम तेजस्वी है। इसके ज्ञान के सामने तेरा ज्ञान तो ऐसा है जैसे सूर्य को दीपक दिखाना।’’
पार्श्वनाथ धीरे-धीरे बाल और किशोरावस्था को व्यतीत कर युवा हो गए। कुशस्थल नगर की राजकुमारी प्रभावती के पिता राजा प्रसेनजीत अश्वसेन के मित्र थे। उन्होंने पार्श्वनाथ से बेटी के विवाह की बात अश्वसेन से चलाई। हालांकि पाश्र्व संसार से अनासक्त थे किन्तु पिता के आग्रह के कारण उन्हें विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा। फलस्वरूप राजकुमार पार्श्वनाथ का विवाह प्रभावती से हो गया और वह गृहस्थ जीवन बिताने लगे।
पार्श्वनाथ को संसार से वैराग्य तो अपने पहले भव से ही था। इस भव में तो वह जन्म-जन्मांतर के समस्त बंधनों से मुक्ति पाने के लिए जन्मे थे। जब पार्श्वनाथ को घर में रहते हुए 30 वर्ष व्यतीत हो गए तो उन्होंने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। फिर पौष कृष्ण 11 को पार्श्वनाथ ने आज्ञाकारिणी पत्नी, राज्य वैभव, धन-जन व परिवार का परित्याग कर जिन-दीक्षा धारण कर ली।
इसी साधना क्रम में ध्यान करते हुए प्रभु ने एक अपूर्व संकल्प ग्रहण किया, ‘‘वृक्ष से टूटकर गिरी हुई टहनी की तरह मैं अपने साधना काल में निष्चेष्ट रहूंगा। ध्यान अवस्था में मुझे कितना ही उपसर्ग सहना पड़े परंतु मैं स्थिर, अचल रहूंगा वैसे ही जैसे वृक्ष से टूट कर गिरी शाखा रहती है।’’
तीर्थंकर पार्श्वनाथ के युग में तप और यज्ञ के नाम पर देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बहुत ङ्क्षहसाएं हो रही थीं। उस पाप का उन्मूलन प्रभु ने किया। पाश्र्व प्रभु ने इस जड़ मान्यता के विरोध में एक नारा दिया था कि दूसरे प्राणी की लाश पर होकर मुक्ति के द्वार तक तुम नहीं पहुंच सकते। उस समय तापस परम्परा के साधु अपने शरीर को तो बहुत कष्टï देते थे परंतु उनकी साधना पद्धति में विवेक का अभाव था। वैचारिक चेतना के अभाव में उन्होंने ‘देहदुखं महाफलं’ को अपनी साधना का सार माना हुआ था। पार्श्वनाथ ने उन्हें समझाया कि जिस तप में विवेक न हो, जिस तपस्या के पीछे अङ्क्षहसा का प्रकाश न हो, वह तपस्या मात्र अंधेरा है।
लोकप्रदीप भगवान पार्श्वनाथ की धर्म-देशना से लाखों आत्माओं ने अपना कल्याण किया। तीर्थंकर पार्श्वनाथ के संघ में दस गणधर-एक हजार कैवल्य ज्ञानी, सात सौ पचास मन-पर्याय ज्ञानी, चौदह सौ अवधिज्ञानी, सोलह हजार साधु, अड़तीस हजार साध्वियां, एक लाख चौंसठ हजार श्रावक (गृहस्थ जैन धमर्णोपासक) और तीन लाख सत्ताइस हजार श्राविकाएं थीं।
सत्तर वर्ष तक तीर्थंकर पर्याय का पालन करते हुए श्रावण शुक्ल 8 को सम्मेद शिखर पर्वत पर भगवान पार्श्वनाथ ने निर्वाण प्राप्त किया। उनकी सम्पूर्ण आयु एक सौ वर्ष थी। 70 वर्ष तक तीर्थंकर बनकर उन्होंने जैन धर्म को सींचा, संवारा एवं संवर्द्धित किया।