अर्जुन की भांति इन्होंने भी भगवान के स्वरूप का दर्शन कर कानों से सुना था गीता उपदेश

Thursday, Jan 19, 2017 - 04:43 PM (IST)

संजय बड़े ही बुद्धिमान, नीतिज्ञ, स्वामिभक्त तथा धर्मज्ञ थे। इसीलिए धृतराष्ट्र इन पर अत्यंत विश्वास करते थे। वह धृतराष्ट्र के मंत्री भी थे और उनको सदैव हितकर सलाह दिया करते थे। जब पांडवों का द्यूत में दुर्योधन ने सर्वस्व हरण कर लिया, तब इन्होंने उसके दुर्व्यवहार की कड़ी आलोचना करते हुए धृतराष्ट्र से कहा, ‘‘महाराज  अब आपके कुल का नाश सुनिश्चित है। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और विदुर जी ने आपके पुत्र को बहुत मना किया, फिर भी उसने अयोनिजा एवं पति परायणा द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित कर भयंकर युद्ध को निमंत्रण दिया है।’’


धृतराष्ट्र ने संजय की बात का अनुमोदन करते हुए अपनी कमजोरी को हृदय से स्वीकार किया, जिसके कारण वह दुर्योधन के अत्याचार को रोक न सके। संजय साम नीति के बड़े पक्षपाती थे। इन्होंने युद्ध रोकने की बड़ी चेष्टा की। वह धृतराष्ट्र की ओर से सन्धि चर्चा करने के लिए उपप्लव्य गए। इन्होंने पांडवों की सच्ची प्रशंसा करते हुए उन्हें युद्ध से विरत रहने की सलाह दी। पांडवों ने तो इनकी बात मान भी ली, किन्तु दुर्योधन ने इनके संधि के प्रस्ताव को तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया, जिससे युद्ध अनिवार्य हो गया। 


जब दोनों ओर से युद्ध की तैयारी पूर्ण हो गई तथा दोनों पक्षों की सेनाएं कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में आ डटीं, तब भगवान व्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि का वरदान देते हुए धृतराष्ट्र से कहा, ये संजय  तुम्हें युद्ध का वृत्तांत सुनाएंगे। संपूर्ण युद्ध क्षेत्र में कोई ऐसी बात न होगी जो इनसे छिपी रहे।


उसी समय से संजय दिव्य दृष्टि से सम्पन्न हो गए। वह वहीं बैठे-बैठे युद्ध की सारी बातें प्रत्यक्ष की भांति जान लेते और उन्हें ज्यों की त्यों धृतराष्ट को सुना देते थे। श्रीमद्भागवदगीता का उपदेश भी इन्होंने अर्जुन की भांति भगवान के स्वरूप का दर्शन करते हुए अपने कानों से सुना। भगवान के विश्व रूप और चतुर्भुज रूप के दर्शन का सौभाग्य अर्जुन के अतिरिक्त महाभाग संजय को ही प्राप्त हुआ।

 
संजय को भगवान श्री कृष्ण के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान था। इन्होंने महर्षि वेदव्यास, देवी गांधारी तथा महात्मा विदुर के सामने, ‘भगवान श्री कृष्ण की महिमा सुनाते हुए कहा, ‘‘भगवान श्री कृष्ण तीनों लोकों के एकमात्र स्वामी और साक्षात परमेश्वर हैं। मैंने ज्ञान दृष्टि से श्री कृष्ण को पहचाना है। बिना ज्ञान के कोई उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता। मैं कभी कपट का आश्रय नहीं लेता, किसी मिथ्या धर्म का आचरण नहीं करता तथा ध्यानयोग के द्वारा मेरा अंत:करण शुद्ध हो गया है। इसीलिए मुझे भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है। प्रमाद, हिंसा और भोग- इन तीनों का त्याग ही ज्ञान का वास्तविक साधन है। इन्हीं के त्याग से परम पद की प्राप्ति संभव है।’’ 


इसके बाद स्वयं भगवान वेदव्यास ने संजय की प्रशंसा करते हुए धृतराष्ट से कहा, ‘‘संजय को पुराण पुरुष भगवान श्री कृष्ण के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान है। इनकी सलाह से तुम जन्म-मरण के महान भय से मुक्त हो जाओगे।


इससे सिद्ध होता है कि संजय श्रीकृष्ण के स्वभाव और प्रभाव को यथार्थ रूप से जानते थे। इन्होंने युद्ध के पूर्व ही घोषित कर दिया था कि जहां योगेश्वर श्री कृष्ण और गांडीवधारी अर्जुन हैं वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा दृढ़ मत है। स्वामी भक्त संजय अंत तक धृतराष्ट और गांधारी के साथ रहे तथा उनके दावाग्नि में शरीर त्याग करने के बाद हिमालय की ओर चले गए।

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