मुश्किल वक्त में भी आपको खुश रखेगी ये सीख, पल्ले से बांध लें

Friday, Jun 23, 2017 - 11:39 AM (IST)

एक गांव में रामू नाम का एक गरीब व्यक्ति रहता था। एक साल गांव में बड़ा अकाल पड़ा। फसल नहीं पकी और रामू को कहीं मजदूरी भी नहीं मिली। खाने के लाले पड़ गए। मजबूर होकर रामू ने अपना घोड़ा बेचने का निर्णय लिया। अपने बेटे के साथ घोड़ा लेकर रामू बाजार की ओर चल पड़ा। उसने अपने बेटे को घोड़े पर बिठाया और खुद घोड़े की लगाम पकड़ कर चलने लगा। रामू को पैदल चलता देखकर एक बुजुर्ग ने उसके बेटे से कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारे पिता बूढ़े हैं। उन्हें घोड़े पर बिठाकर तुम्हें पैदल चलना चाहिए।’’ 


रामू के बेटे को यह बात जंच गई। उसने जबरदस्ती से अपने पिता को घोड़े पर बिठाया। दोनों थोड़ी दूर गए ही थे कि कुछ और पहचान वालों ने रामू की खिल्ली उड़ाते हुए कहा, ‘‘कैसे बाप हो, अपने बेटे को पैदल चला रहे हो और खुद घोड़े पर आराम से बैठे हो।’’ 


उनकी बातें सुनकर बाप-बेटा दोनों चकरा गए। रामू घोड़े से उतर गया और दोनों घोड़े के साथ पैदल चलने लगे। जरा आगे गए ही थे कि बाजू में खड़े कुछ लोगों में से एक की आवाज आई, ‘‘वो देखो, दो मूर्ख जा रहे हैं। साथ में घोड़ा होते हुए भी दोनों पैदल चल रहे हैं। दोनों घोड़े पर क्यों नहीं बैठते?’’ 


रामू और उसके बेटे ने अपनी गलती मान ली और दोनों घोड़े पर बैठकर जाने लगे। जरा दूर तक ही गए थे कि कुछ और रामू का धिक्कार कर कहने लगे, ‘‘कैसा आदमी है, बेचारे जानवर को सता रहा है। हम उसकी जगह पर होते तो घोड़े को अपने कंधे पर उठाकर ले जाते।’’


रामू ने और उसके बेटे ने यह बात सुनी और बिना आगा-पीछा सोचे, घोड़े के अगले तथा पिछले पैर रस्सी से बांधे और उसे कंधों पर उठाकर आगे बढऩे लगे। रास्ते में चलते-चलते नदी देखी तो घोड़ा लात मारने लगा। दोनों घोड़े को संभाल नहीं सके और उसके पैरों की रस्सी ढीली पड़ गई और वह भाग गया। यह पूरी घटना कुछ लोग मजे ले-लेकर देख रहे थे। हंसते हुए कहने लगे, ‘‘देखो, कैसे मूर्ख हैं दोनों। एक घोड़ा भी ठीक तरह से बाजार तक नहीं ले जा सके।’’ रामू और उसका बेटा निराश होकर घर लौट गए।


हमारे आसपास टीका-टिप्पणी करने वाले लोग भरे पड़े रहते हैं, मगर हमें व्यावहारिक रूप से चतुर होना चाहिए। दूसरों की बातें किस सीमा तक माननी चाहिएं, इसकी मर्यादा मालूम होना, अपने शब्दों का सोच-समझकर, सावधानी से प्रयोग करना और इस बात का ध्यान रखना कि कहां रुकना है, इन सबको मिलकर ही व्यावहारिक चतुरता बनती है। टीका-टिप्पणी से बिना लडख़ड़ाए उससे प्रेरणा लेनी चाहिए। उचित कारणों के लिए की गई टीका-टिप्पणी हमें स्वीकार कर लेनी चाहिए, किंतु गलत कारणों की वजह से होने वाली टीका-टिप्पणी शांति के साथ नजरअंदाज करना ही सबसे आसान विकल्प है। 

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