महाराजा रणजीत सिंह के भरोसेमंद अधिकारी थे लाला जी के पूर्वज

Friday, Mar 22, 2024 - 05:20 PM (IST)

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Lala Jagat Narayan: लाला जगत नारायण जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि का ज्ञात प्रथम छोर अर्थात उनके पूर्वज दीवान मूल राज चोपड़ा थे, जिन्हें शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का एक विश्वस्त अधिकारी समझा जाता था तथा वह मुल्तान (अब पाकिस्तान में) के गवर्नर थे। प्रखर राष्ट्रवादी महाराजा रणजीत सिंह नहीं चाहते थे कि पंजाब के लोग धर्म या जाति के नाम पर बंट कर कमजोर बनें तथा विदेशियों के लिए उन पर आक्रमण करना और उन्हें कुचलना आसान हो। वह महान पंजाब के एक महान शासक थे। उनकी शूरवीरता, अद य साहस और प्रशासनिक कुशलता इतिहास सिद्ध है।

उनके राज्य में हिन्दू, मुस्लिम और सिख सभी समान रूप से परस्पर प्रेमपूर्वक रहते थे। धार्मिक, सांप्रदायिक या जातिगत शत्रुता-भाव के लिए कोई स्थान नहीं था।

दीवान मूल राज चोपड़ा भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रहे। उन्होंने एक अधिकारी के तौर पर पूर्ण निष्ठा एवं  समर्पण भाव से कार्य किया तथा कई वर्षों तक सेवारत रहे। उदार हृदयी महाराजा रणजीत सिंह ने दीवान मूल राज चोपड़ा की अनन्य स्वामी भक्ति से प्रभावित और प्रसन्न होकर उन्हें वजीराबाद (अब पाकिस्तान में) में कुछ भूमि तथा दीवानों की हवेली के नाम से प्रसिद्ध एक महल उपहार स्वरूप प्रदान किया। उन दिनों दीवान को अच्छे अधिकार प्राप्त होते थे। उन्हें ‘छोटी मोहर वाले’ कह कर पुकारा जाता था  तथा उनकी मोहर के बिना चिनाब नदी को पार करने की अनुमति नहीं थी।

वजीराबाद उन दिनों एक अच्छा जाना-पहचाना ऐतिहासिक नगर था, जो रेल द्वारा लाहौर, रावलपिंडी, स्यालकोट आदि नगरों से जुड़ा हुआ था। कहा जाता था कि सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी ने एक बार अपना घोड़ा यहां के ‘गुरु कोठा गुरुद्वारा’ में बांधा था। यहीं महाराजा रणजीत सिंह का गर्मियों में विश्राम करने के लिए ‘मुस्सम बुर्ज’ नामक एक महल था।

लाला जगत नारायण जी के जन्म काल के समय इस नगर के लोग बहुत प्रगतिशील, शिक्षित व सजग थे। लगभग एक दर्जन स्कूल भी नगर में थे। पंजाबियत व पंजाबी संस्कृति के विविध रूप-रंग यहां विद्यमान थे। बैसाखी, बसंत पंचमी तथा होली के अवसर पर यहां के मेले बड़े प्रसिद्ध थे। नगर से कोई तीन किलोमीटर दूर चिनाब नदी थी। यहीं लगता था बैसाखी का मेला, जहां पंजाबियत का पूरा प्रदर्शन होता था।

लाला जगत नारायण जी के पूर्वज वजीराबाद में गली आर्यांवाली, वेहड़ा चोपड़ां दा, मोहल्ला दीवान में स्थित एक विशाल मकान में रहते थे, जो छोटी ईंटों से बना हुआ था तथा जिसमें नौ कमरे थे। लाला जगत नारायण को अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा व वैभव पर गर्व था, जिसे याद कर वह कई बार रोमांचित हो उठते थे। अपने पूर्वजों के महान आदर्शों का प्रभाव लाला जी के व्यक्तित्व में भी देखा जा सकता था। वह भारतीय और पंजाबी पहले थे, हिन्दू बाद में। राष्ट्रीयता की भावना का संचार उनकी नस-नस में था।

लाला जी के पिता श्री लखमी दास चोपड़ा, दीवान मूल राज चोपड़ा के पौत्रों में से एक थे। श्री लखमी दास चोपड़ा का जन्म व पालन-पोषण वजीराबाद में उसी महल में हुआ, जो उन्हें महाराजा रणजीत सिंह ने भेंट किया था परंतु लखमी दास जी ने अपने पूर्वजों से हट कर अपने लिए अलग व्यवसाय चुना। वजीराबाद में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के पुलिस बल में जाना स्वीकार कर लिया। धीरे-धीरे वह पुलिस में प्रचलित शराब व सिगरेट आदि व्यसनों के भी अयस्त हो गए, परंतु श्रीमती लाल देवी से विवाह होते ही उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया।

श्रीमती लाल देवी एक सुसंस्कृत आर्य-समाजी परिवार से संबंधित थीं। उनमें व्यक्तिगत साहस एवं प्रबल इच्छा शक्ति थी। धीरे-धीरे वह अपने पति श्री लखमी दास को सभी प्रकार के दुर्व्यसनों से मुक्त कराने में सफल हो गईं और वह पूर्णत: शाकाहारी बन गए। इस प्रकार श्रीमती लाल देवी के माध्यम से श्री लखमी दास जी आर्य समाज के संस्थापक महाऋषि दयानंद के आदर्शों व विचारों से प्रभावित हुए बिना न रह सके।

यह समय भारत में ‘सांस्कृतिक पुनर्जागरण’ का काल था। देश भर में राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद व महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे विचारक एवं समाज सुधारक समाज में फैले अज्ञान, अंधविश्वासों, कुरीतियों, गली-सड़ी पर पराओं व जर्जर मान्यताओं के अंधकार से लड़ रहे थे। पंजाब में ‘आर्य समाज’ की वैदिक विचारधारा का प्रसार व प्रभाव अधिक देखा जा सकता था। महर्षि दयानंद के आदर्श विशेष रूप से पढ़े-लिखे युवकों में अधिक लोकप्रिय हो रहे थे। महर्षि दयानंद राष्ट्रीयता व भारतीयता के पोषक थे।

‘आर्य समाज’ के विचारों के अनुरूप डी.ए.वी. शिक्षा आंदोलन का सूत्रपात भी उन दिनों हो चुका था। डी.ए.वी. शिक्षा प्रणाली प्राचीन व नवीन का समन्वय थी। वैदिक जीवन मूल्यों पर आधारित आधुनिक विज्ञान स मत शिक्षा इस आंदोलन का ध्येय था। यह शिक्षा आंदोलन राष्ट्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय सिद्ध हुआ।

इस परिवेश का लाला जगत नारायण पर भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रभाव पड़ा। उनको राष्ट्रीयता, भारतीयता, प्रगतिशीलता, व्यक्तिगत साहस, निर्भीकता जैसे उच्च संस्कार पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुए जिन्होंने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को प्रभावित किया। इसके अतिरिक्त लखमी दास उर्दू व फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। उनकी लिखाई बहुत ही सुंदर थी। उनमें चिनाब नदी के प्रति एक चु बकीय आकर्षण था। वह कहा करते थे :

‘नहीं रीसां चिना दियां भावें सुक्की वगे।’
अर्थात चिनाब नदी का कोई मुकाबला नहीं, चाहे वह सूखी ही बहे।              

                
 

Prachi Sharma

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