वृंदावन के कान्हा का था चंद्रमा से कनैक्शन इसलिए कहलाए श्रीकृष्णचंद्र

Monday, Aug 14, 2017 - 03:38 PM (IST)

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को महानिशीथ काल में वृष लग्न में हुआ था। उस समय चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में था। रोहिणी ही चंद्रमा का सर्वाधिक प्रिय नक्षत्र है। रात्रि के ठीक 12 बजे क्षितिज पर वृष लग्न उदय हो रहा था व चंद्रमा लग्न में विराजित थे। वृष में ही चंद्रमा उच्च का माना जाता है। चतुर्थ भाव सिंह में सूर्य विराजित थे। पंचम भाव कन्या में बुध विराजित थे। छठे भाव तुला में शुक्र व शनि विराजित थे। भाग्य भाव मकर में मंगल विराजमान थे व लाभ स्थान मीन में बृहस्पति स्थापित थे। मूलतः श्रीकृष्ण चंद्रमा प्रधान अवतार थे इसी कारण इन्हे कृष्णचंद्र के नाम से जाना जाता है तथा उनके वंशावली अनुसार भी उन्हे चंद्र-वंशी कहा गया है।


शास्त्रनुसार जिस प्रकार चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं तथा जिस प्रकार एक स्त्री सोलह श्रृंगार करके सम्पूर्ण बनती है ठीक उसी प्रकार श्रीकृष्ण अवतार सभी 16 कलाओं से परिपूर्ण था अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्म उपनिषदों के अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वर तुल्य हो जाता है। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं अर्थात सोलह तिथियां अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत। इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहते है। जिस प्रकार चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाओं से सोलह श्रृंगार का चलन हुआ अर्थात मनुष्य मन की 16 अवस्थाएं या मनोदशा या कहें 16 मन के भाव या 16 ही रंग अर्थात चित्तवृत्ति।


चंद्रमा की 16 कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोध से है। श्रीकृष्ण की तरह प्रत्येक व्यक्ति में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती हैं अर्थात इसका संबंध यथार्थ ज्ञान की 16 अवस्थाओं से है। शास्त्रनुसार इन 16 कलाओं के नाम इस प्रकार हैं 1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण व 16.स्वरुपवस्थित। चंद्रमा की 16 कलाएं दरअसल बौद्ध योगी की विभिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा हेतु प्रतिपदा से पूर्णिमा तक चंद्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का और पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक है।


श्रीक़ृष्ण इन सभी सोलह कलाओं से परिपूर्ण थे-

श्रीकृष्ण ने अपनी देह भी चंद्रमा प्रधान सोमनाथ तीर्थ प्रभास क्षेत्र में छोड़ दी थी तथा इसी प्रभास क्षेत्र में उनके कुल का नाश भी हुआ था।


श्रीकृष्ण की त्वचा का रंग चंद्रमा प्रधान मेघ श्यामल था अर्थात जैसे चंद्रमा बादलों के बीच छुप गया हो अर्थात काला, नीला व सफेद मिश्रित रंग।


श्रीकृष्ण के शरीर से चंद्रमा प्रधान रातरानी की मादक गंध निकलती रहती थी। इस गंध को वे अपने गुप्त अभियानों में छुपाने का उपक्रम करते थे।


श्रीकृष्ण ने अपना अंतिम पड़ाव भी चंद्र प्रधान समुद्री क्षेत्र द्वारिका को बनाया जहां वह 6 महीने ही रहते थे अर्थात जिस प्रकार चंद्रमा के कृष्ण ऍर शुक्ल पक्ष होते हैं।
 

श्रीकृष्ण की देह स्त्री समान मृदु थी परंतु युद्ध के समय कठोर हो जाती थी। जिस प्रकार चंद्रमा अमावस्या से पूर्णिमा पर पूर्ण व फिर अमावस्या पर शून्य हो जाता है।

 

आचार्य कमल नंदलाल
ईमेल: kamal.nandlal@gmail.com

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