Chaturmas jain: शास्त्रीय विधान अनुसार जानिए, जैन धर्म में चातुर्मास की महत्ता

Wednesday, Jun 28, 2023 - 08:15 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

Jain Chaturmas 2023: भारत में विभिन्न धर्मों के संत महात्माओं की अपनी-अपनी मान्यताओं और धार्मिक विधानों के अनुसार साधना पद्धतियां, अनुष्ठान और निष्ठाएं परिपक्व हुईं हैं। इन पद्धतियों में चातुर्मास की परम्परा बड़ी महत्वपूर्ण है। वैदिक परम्परा के संतों में भी चातुर्मास की परम्परा चली आ रही है परन्तु जैन धर्म में इसका महत्वपूर्ण स्थान है।
 
1100  रुपए मूल्य की जन्म कुंडली मुफ्त में पाएं। अपनी जन्म तिथि अपने नाम, जन्म के समय और जन्म के स्थान के साथ हमें 96189-89025 पर व्हाट्सएप करें
 
 
चातुर्मास का अर्थ है-चार मास के लिए साधु-साध्वियों का एक स्थान पर ठहरना। चातुर्मास का आरंभ वर्षा ऋतु में होता है। वर्षा के कारण सभी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं और जीव-जंतुओं की उत्पत्ति भी बढ़ जाती है अत: जीवों की रक्षा और संयम -साधना के लिए चार मास तक साधु-साध्वियों को एक स्थान पर रुकने का शास्त्रीय विधान है। अपवाद स्वरूप ही साधु चातुर्मास में अन्यत्र जा सकते हैं। शास्त्रों में उल्लेख है कि संघ पर संकट आने अथवा किसी स्थविर या वृद्ध साधु की सेवा के लिए साधु चातुर्मास में दूसरे स्थान पर जा सकता है अन्यथा उसे चातुर्मास में एक स्थान पर रुकने का शास्त्रीय आदेश है। 

जैन धर्म में चातुर्मास की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। स्वयं श्रमण भगवान महावीर ने अपने जीवन में विभिन्न क्षेत्रों में चातुर्मास किए। उन्होंने अपना अंतिम 42वां चातुर्मास पावापुरी में किया था। यहां उन्होंने अपना अंतिम उपदेश तथा देशनाएं दी थीं जो जैनों के प्रसिद्ध आगम ‘उत्तराहयमन सूत्र’ में संकलित हैं। अपने इस अंतिम चातुर्मास में भगवान महावीर ने अपने प्रधान शिष्य गौतम स्वामी को प्रतिबोध देते हुए कहा था-‘समयं गोयम मा पमाए’
 

अर्थात ‘‘हे गौतम! संयम साधना के लिए एक क्षण भी आलस्य मत करो।’’

भगवान महावीर का यह संदेश केवल गौतम स्वामी के लिए ही नहीं अपितु प्रत्येक साधक के लिए था। 

जैन धर्म में सामाजिक तथा धार्मिक दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। व्यक्ति और समाज में परपस्पर सम्बद्ध हैं। एक-दूसरे का विकास परस्पर सहयोग से होता है। हमारे साधु-साध्वियां वर्षावास में लोगों को समाज में परस्पर भाईचारे, सद्भावना और आत्मीयता बनाए रखने की प्रेरणा देते हैं। आधुनिक युग संदर्भ में व्यक्ति और समाज की परिस्थितियां बदल गई हैं। जीवन में कुंठाएं, धन लोलुपता और पक्ष राग बढ़ गया है तथा धर्म राग कम हो गया है। फिर भी साधु-साध्वी इसमें संतुलन रखने और मर्यादित जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं जिससे समाज में एकसुरता बनी रहती है। धार्मिक दृष्टि से तप, जप, स्वाध्याय, दान, उपकार और सेवा आदि प्रवृत्तियों को प्रश्रय देना उनका ध्येय भी है और कर्तव्य भी, क्योंकि साधु-साध्वियां समाज के अधिक निकट होते हैं और वे समाज में पनप रही रूढिय़ों और मिथ्या धारणाओं का निराकरण करने का प्रयत्न करते हैं। आधुनिक युग संदर्भ में चातुर्मास की यही विशेषता है।
 

चातुर्मास में महापर्व सम्वत्सरी भी आता है। इस दृष्टि से इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। यह जैनों का अलौकिक पर्व है।  एक ओर जहां यह तप, त्याग का पर्व है वहां परस्पर वैमनस्य और वैर, विरोध को दूर करने का सशक्त माध्यम भी है। 

भगवान महावीर ने चातुर्मास में इसकी गवेषणा इसलिए की थी कि व्यक्ति समाज में रहते अनेक प्रकार के मन-मुटावों का शिकार हो सकता है अत: महापर्व सम्वत्सरी में इनका सुधार कर लिया जाए। 

यह धारणा एक स्वस्थ और सभ्य समाज की गारंटी है। इस प्रकार जैन धर्म में चातुर्मास का सामाजिक और धार्मिक महत्व तो है ही व्यक्ति और समाज को एक सूत्र में पिरोने का भागीरथ प्रयत्न भी है।
 

Niyati Bhandari

Advertising