जगन्नाथ रथयात्रा शुरू, अपने भक्तों को दर्शन देने खुद चलकर आते हैं भगवान

Sunday, Jun 25, 2017 - 03:53 PM (IST)

भुवनेश्वर: उड़ीसा के पूर्वी तट पर स्थित जगन्नाथ पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का उत्सव आज पारंपरिक रीति के अनुसार धूमधाम से शुरु हुई। भारी तादाद में भक्तजन वहां मौजूद हैं और चारों तरफ जय जगन्नाथ गुंजयमान हो रहा है। इसे गुंडिचा महोत्सव भी कहा जाता है। हर साल आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन रथ यात्रा शुरू होती है। आज के दिन भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ अपने जन्मस्थान गुंडिचा मंदिर जाते हैं। वहां नौ दिन तक रहते हैं। गुंडिचा मंदिर पुरी श्री जगन्नाथ मंदिर से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर है। गुंडिचा मंदिर को जगन्नाथ स्वामी का 'जन्मस्थल' भी कहा जाता है क्योंकि इस जगह पर दिव्य शिल्पकार विश्वकर्मा ने राजा इन्द्रध्युम्न की इच्छानुसार जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा के विग्रहों को दारु ब्रम्ह से प्रकट किया था।

लकड़ी से बने रथो का महत्व
भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलराम और बहन सुभद्रा तीनों को रथों पर बिठाकर खींचा जाता है इस दौरान भक्तों में रस्सी पकड़ कर रथ खींचने की होड़ रहती है कि एक बार वे जगन्नाथ की रथयात्रा का हिस्सा बन सकें। कहते हैं भगवान जगन्नाथ का रथ खींचने से मुक्ति मिल जाती है और फिर उसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। यह रथ लकड़ी के बने होते हैं। जगन्नाथजी का रथ नंदीघोष, बलराम जी का रथ ‘तलध्वज’ और सुभद्रा जी का रथ “देवदलन” है। तीनों रथों को जगन्नाथ मंदिर से खींच कर 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थिति गुंडीचा मंदिर तक लिया जाता है। गुंडीचा मंदिर 7 दिनों तक जगन्नाथ भगवान यहीं निवास करते हैं. इसके बाद आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन वापसी जिसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। इस दौरान पुन: गुंडिचा मंदिर से भगवान के रथ को खिंच कर जगन्नाथ मंदिर तक लाया जाता है।
 

इसलिए अधूरी रह गई भगवान की मूर्ति
शास्त्रों के मुताबिक शिल्पकार विश्वकर्मा जब मूर्ति बना रहे थे तब राजा के सामने शर्त रखी कि वह दरवाज़ा बंद करके मूर्ति बनाएंगे और जब तक मूर्ति नहीं बन जाती राजा दरवाज़ा नहीं खोलेंगे। मूर्ति बनने से पहले अगर राजा दरवाज़ा खोलेगा तो वह मूर्ति बनाना छोड़ देंगे। बंद दरवाज़ा के अंदर मूति निर्माण क काम हो रहा है या नहीं यह जानने के लिए राजा रोज दरवाज़ा के बहार खड़े होकर मूर्ति बनने की आवाज़ सुनते थे। एक दिन राजा को आवाज़ सुनाई नहीं दी। ऐसे में राजा को लगा कि विश्वकर्मा काम छोड़कर चले गए हैं। राजा ने अचानक दरवाजा खोल दिया, इश बात से नाराज होकर  विश्वकर्मा अपनी शर्त के अनुसार वहां से गायब हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्ति अधूरा रह गई। तभी से तीनों इसी रूप में यहां विराजमान हैं।

खुद दर्शन देने आते हैं बाहर
भगवान जगन्नाथ की यात्रा की शुरुआत काफी पहले से हो जाती है. गुंडिचा महोत्सव की तैयारी पांच महीने पहले से शुरू हो जाती है। जगन्नाथ जी का रथ 'गरुड़ध्वज' या 'कपिलध्वज' कहलाता है। यह रथ 13.5 मीटर ऊंचा होता है और 16 पहियों वाला होता है। प्रभु बलराम के रथ को 'तलध्वज' कहते हैं और यह 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है। सुभद्रा का रथ 'पद्मध्वज' कहलाता है और 12.9 मीटर ऊंचा होता है। 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कप़ड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का प्रयोग होता है। रथयात्रा के दिन प्रभु जगन्नाथ खुद दारुब्रह्म बन जाते हैं। भगवान खुद अपने भक्तों से मिलने के लिए और उनको  मुक्ति देने के लिए अपने मंदिर छोड़कर दारु यानी रथ में प्रवेश करते हैं।

साल में एक बार पुरी के महाराज जनता को करते हैं प्रणाम
रथयात्रा की शुरुआत पुरी के महाराज के 'छेरा पहांरा' के साथ होती है। 'छेरा पहांरा' ले मतलब है महाराज खुद सोने की झाड़ू से रथ के साथ-साथ उस रास्ते में झाड़ू लगते हैं जिस रास्ते में भगवान का रथ निकलने वाला होता है। आज के दिन और बाहुड़ा यात्रा के दिन खुद पूरी के महाराज अपने प्रजा यानी जनता को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं।

 

 

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