सच्चे परोपकार के लिए व्यक्ति के मन में हो ऐसी भावना

Friday, Dec 02, 2016 - 10:29 AM (IST)

इस संपूर्ण सृष्टि की कार्यपद्धति कुछ नियमों और कानूनों के आधार से चलती है। जिसमें कर्मसिद्धांत सबसे महत्त्वपूर्ण नियम है। इस तथ्य को समझते हुए यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि दुनिया की हर जाति,धर्म और सम्प्रदाय कर्मसिद्धांत के कानून की सीख देता है। आपके द्वारा किया गया हर कार्य फिर चाहे वह विचारों द्वारा मन में सोचा गया हो या प्रत्यक्ष कृति द्वारा किया गया हो, सभी की गिनती कर्म के रूप में होती है।

 

असल में हर कार्य सर्वप्रथम एक विचार के रूप में ही उत्पन्न होता है। कर्मसिद्धांत के अंतर्गत आप जैसा बोएंगे बिलकुल वैसा ही फल पाएंगे। इस सृष्टि में सब कुछ चक्र के स्वरुप में है। हमारा जीवन जन्म और मृत्यु के चक्र में बंधा हुआ है। हमारा संपूर्ण जीवनकाल जन्म, शैशव, बाल्यावस्था, यौवन, मध्यम आयु, वृद्धावस्था, मृत्यु फिर दोबारा जन्म, शैशव इत्यादि के रूप में चक्र स्वरुप में बंधा हुआ होता है। हमारे जीवनकाल में किसी भी मोड़ पर घटित होने वाली हर घटना हमारे लिए मात्र एक अनुभव होता है और ऐसा हर अनुभव हमारे गत जन्मों के कर्मों का परिणाम होता है। 

 

रोज सुबह सूर्य पूर्वदिशा से उदय होता है और हर शाम पश्चिम दिशा में जाकर अस्त होता है, फिर अगली सुबह वह पूर्व दिशा से उगता है। इसी तरह यह चक्र बिना रुकावट चलता जाता है। पेड़ पतझड़ के मौसम के दौरान अपने पुराने पत्तों को फैंक देता है ताकि उस पर नए पत्तों की उत्पत्ति हो सके। इसी तरह यह चक्र भी बिना रुकावट चलता जाता है। यह संपूर्ण सृष्टि कर्मसिद्धांत के नियमों के अंतर्गत चलती जाती है। असल में यह सृष्टि स्वयं भी कर्मसिद्धांत के नियमों के अंतर्गत उत्पन्न हुई है। इस सृष्टि की उत्पत्ति का सबसे पहला कारण था अनुभव करने की इच्छा की जागृति। इस एक इच्छा या कर्म के कारण संपूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई। 

 

इसी कारण से माता आदिशक्ति अवतरित हुई और फिर उनसे त्रिदेवों और उनकी सह्चारिणियों की उत्पत्ति हुई। जैसे एक विचार द्वारा कर्मों की कई लहरें उत्पन्न होती हैं, वैसे ही हमारे हर विचार, कृतियों और कार्यों द्वारा कई सारी कर्मों की लहरें उत्पन्न होती हैं और फिर हम उन्हीं कर्मों की लहरों के परिणामों से बंध जाते हैं। इस लगातार कर्मों की लहरों के प्रवाह से यह सृष्टि हर क्षण भौतिक रूप से बदलती रहती है। इस
आधुनिक दौर के अर्थशास्त्री भी इस तथ्य का यह कहकर समर्थन करते हैं कि कोई भी बड़ी कंपनी या तो प्रगति करती है या अधोगति किंतु वह कभी भी संपूर्ण रूप से स्थिर होकर काम नहीं कर पाती। इसी कारण से अगर प्रगति करने की मंशा हो तो कंपनी को लगातार कुछ नया बनाने की जरूरत होती है, अन्यथा वह जल्दी ही बंद हो जाएगी।बिलकुल इसी तरह इस पृथ्वी पर भी सब कुछ परिवर्तित होते रहता है, स्थिर नहीं हो पाता।

 

जिस दिन इस सृष्टि का हर कर्म स्थिर हो जाएगा, उस दिन इस पूरी सृष्टि की स्थिति दोबारा अपनी पूर्णता की स्थिति में परिवर्तित हो जाएगी। जोकि सृष्टि के उत्पत्ति की सबसे पहली स्थिति थी। साधना का मूल उद्देश्य आत्मिक उन्नति है और आप जैसे-जैसे आत्मिक रूप से प्रगत होते जाते हैं, वैसे-वैसे आप सृष्टि के आत्मिक विकास के शुंडाकार स्तंभ के ऊपरी स्तरों पर पहुंच जाते हैं और इस स्तंभ के निचले स्तरों के उत्तरदायी बन जाते हैं। केवल वही जीव जोकि दूसरों की सहायता करना चाहता है, साधना के इस मार्ग पर चलने योग्य होता है। परोपकार और सेवा ये दोनों अष्टांग योग और इसी कारणवश सनातन क्रिया के अत्यावश्यक भाग हैं। कई लोग ऐसा समझते हैं कि परोपकार का अर्थ होता है किसी जरूरतमंद हो कुछ देना। आप किसी को कुछ भी देने योग्य नहीं हैं क्योंकि किसी को आपका कुछ देने के लिए आपके पास स्वयं का कुछ नहीं है। आप केवल एक सृष्टि की प्रणाली का हिस्सा अर्थात एक निमित्त मात्र हैं। 

 

परोपकार का सही अर्थ यह है कि आप किसी की सहायता बिना कोई अपेक्षा किया करें।परोपकार वह होता है जब आपके बाएं हाथ को मालूम न हो कि आपका दायां हाथ क्या कर रहा है, चूंकि आपके बाएं हाथ को इससे कोई सरोकार नहीं है। जब किसी सार्वजनिक समारोह में कोई व्यक्ति जाकर अपने द्वारा किए गए परोपकार का डंका बजाता है तो वह असल में परोपकार नहीं कहलाता अपितु ऐसा व्यक्ति अपने अहंकार को बढ़ाकर खुद के लिए शोहरत हासिल करने का प्रयास कर रहा होता है। इस सृष्टि में मौजूद साधन और संपदा पर हर जीव का समान रूप से अधिकार है और अगर आपके पास इन साधनों और संपदाओं की मात्रा अधिक है तो इसका सीधा अर्थ यही है कि आप सृष्टि के बाकी जीवों के हिस्से पर भी अपना अधिकार जमाएं बैठे हुए हैं। इसी कारणवश परोपकार बिना यह सोचे करना आवश्यक है कि आपके द्वारा दी गई संपत्ति किसके पास जा रही है या यह संपत्ति जिसके पास जा रही है, वह दान जा रहा है वह सुपात्र है भी या नहीं। 

 

दान करते समय बिना जांचे परखे दान करना आवश्यक है। वह जीव जिसके प्रति आप परोपकार करते हैं और फिर वह जीव उस किए गए परोपकार का किस तरीके से इस्तेमाल करता है, इस तथ्य की जानकारी रखना आपका काम नहीं होता। भगवद गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि, “किसी भी जीव की पात्रता का फैसला केवल मेरे हाथों में ही है”, हम सबके हाथों में केवल कर्म करने का विकल्प है।किसी और की पात्रता को जांचने के लिए सर्वप्रथम हमें स्वयं परिपूर्ण होना जरूरी है किन्तु हम यह जानते हैं कि इस दुनिया में ईश्वर के अलावा और कोई भी परिपूर्ण नहीं है। दान हमेशा द्रव्य के रूप में करना जरूरी नहीं होता अपितु दान मीठे बोल, सहायता, सेवा या किसी को दिलासा देने हेतु मुस्कुराने के रूप में भी किया जा सकता है किंतु यह सब बिना किसी अपेक्षा के निस्वार्थ रूप से किया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर महाभारत में इंद्रदेव ने कर्ण के समक्ष एक गरीब ब्राह्मण के रूप में आकर उससे उसके कवच की मांग की। कर्ण ने उसे पहचान लिया था और यह जानते हुए कि उसकी इस मांग को पूरा कर वह खुद की जान को खतरे में डाल रहा है। उसने उस ब्राह्मण की मांग का मान रखकर मुस्कुराते हुए अपना कवच खुले हाथों से उसे दे दिया। ऐसा कर्म ही सच्चे रूप से परोपकार कहलाता है।

योगी अश्विनी जी
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