जीवन में ऐसी स्थिति के उपरांत ही होता है शांति और स्थिरता का अनुभव

punjabkesari.in Sunday, Nov 13, 2016 - 04:15 PM (IST)

संपूर्ण भगवद गीता कर्म सिद्धांत पर आधारित है। यह हमेशा कहा जाता है कि, "हम जैसा बोते हैं, बिलकुल वैसा ही फल पाते हैं"। जब हम जमीन में बीज बोते हैं तो उस बीज का अंकुरण एवं उससे पैदा होने वाले पौधे की गुणवत्ता उस जमीन के उपजाऊपन पर निर्भर करती है। उसी तरह हमारा हर कर्म फिर चाहे वह कितना ही तुच्छ क्यों न हो, उसमें अंकुरण होने की क्षमता होती है और हम पर उससे होने वाले प्रभाव वह कर्म कैसे एवं कहां किया गया है, इस पर निर्भर करता है।

 

हर कर्म का फल उस कर्म की क्षमता और सूक्ष्मता पर निर्भर करता है और उस घटना एवं इंसान जिसके लिए या जिसके विरुद्ध वह कर्म किया गया हो उनकी क्षमता और सूक्ष्मता पर निर्भर करता है। कर्म की सूक्ष्मता जितनी ज्यादा होती है, उतनी तीव्रता से उस कर्म का फल कर्ता को प्राप्त होता है। उदाहरण के तौर पर यह सलाह हमेशा दी जाती है कि हमें किसी भी आध्यात्मिक रूप से प्रगत व्यक्ति के प्रति विचार, वाणी या आचार में नकारात्मकता नहीं रखनी चाहिए। यह इसलिए नहीं कहा जाता चूंकि ऐसे व्यक्ति अत्यंत अहंकारी होते हैं अपितु इसलिए कहा जाता है क्योंकि आध्यात्मिक रूप से प्रगत व्यक्ति की ऊर्जा आध्यात्मिक अभ्यास के कारण अत्यंत शक्तिशाली और सूक्ष्म होती है। इसी कारण आपके उनके प्रति किए गए हर कर्म के फल की तीव्रता उनकी आध्यात्मिक उन्नति के स्तर के अनुरूप होगी। कर्ता की आध्यात्मिक उन्नति का स्तर जितना उच्च होता है, उसके कर्म और कर्मफल के बीच का अंतराल उतना ही कम होता है।

 

अक्सर ऐसा कहा जाता है कि हम इस दुनिया में खाली हाथ आते हैं और फिर एक दिन खाली हाथ ही यहां से चले जाते हैं। अलेक्जेंडर दी ग्रेट ने उसकी मृत्यु के समय पर यह इच्छा व्यक्त की थी कि उसकी मृत्यु के उपरांत उसकी कब्र से उसके हाथ खाली लटकते रहें ताकि लोग इस तथ्य को समझ पाएं कि हम इस दुनिया में खाली हाथ आते हैं और फिर एक दिन खाली हाथ ही यहां से चले जाते हैं। किंतु यह पूरा सत्य नहीं है।

 

एक योगी आपको ऐसे विचार व्यक्त करते हुए कभी नहीं मिलेगा चूंकि एक योगी भली भांति इस तथ्य को जानता है कि हम जब पैदा होते हैं तो अपने साथ हमारे पूर्व जन्म के कर्मों को लेकर आते हैं और जब अपना शरीर छोड़ते हैं तो अपने साथ इस जन्म के कर्म लेकर जाते हैं। एक जिन्दा व्यक्ति का वजन और उसकी आत्मा के शरीर छोड़ने के उपरांत उसके मृतदेह के वजन में भिन्नता नजर आती है। यह भिन्नता आत्मा के वजन के कारण नहीं अपितु उस व्यक्ति के कर्मों के कारण होती है।

 

ब्रह्मदेव ने जब सृष्टि का निर्माण किया तब उन्होंने हर विचार और कर्म की उत्पत्ति की।कुछ विचार व्यक्ति की इच्छाओं के कारण उससे आकर्षित होते हैं एवं उसके उसी जीवन में फलित होते हैं। हम हमारे एक जन्म के कर्मों की पोटली बिलकुल एक अनुवांशिक कोड की भांति हमारे अगले जन्म में लेकर जाते हैं और इसी कर्मों की पोटली के आधार से हमारा अगला जन्म किस खानदान में होगा, यह निश्चित होता है। इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भविष्य में हमारे साथ जो कुछ भी होने वाला है, वह पहले से ही तय होता है अर्थात हर कर्म का परिणाम पहले से ही मौजूद होता है।

 

हमारे वर्तमान जन्म में या किसी और जन्म में हमारे कर्मों से निष्पन्न होने वाले परिणामों को तो हम बदल नहीं सकते। अब आप पूछेंगे कि जब सब कुछ पहले से ही तय है तो हमें किसी भी चीज के बारे में सोचने की या चिंता करने की क्या जरूरत है? जब कोई भी परिस्थिति बदलना हमारे हाथ में नहीं है तो किसी भी परिस्थिति को बदलने का प्रयास हम क्यों करें?

 

यह अवश्य सत्य है कि हम प्रारब्ध (हमारे पूर्व जन्मों के कर्म) से बंधे होने के कारण हमारे जीवन में घटने वाली घटनाओं से पीछा नहीं छुड़ा सकते। अपितु हम उन घटनाओं से मिलने वाले अनुभवों से अवश्य अपने आप को मुक्त कर सकते हैं। इस तथ्य को बुद्धि से जानना मुश्किल है किंतु यह सत्य है। जब तक आप पर गुरु का आशीर्वाद न हो तब तक आप किसी भी कर्म के फल के परिणाम से निष्पन्न होने वाले सुख या दुःख से अपना पीछा नहीं छुड़ा सकते। केवल गुरु कृपा के कारण ही आप आपके कर्मों के परिणामों से ऊपर उठ पाने में सक्षम हो जाते हैं।

 

जब आप योग के मार्ग पर चलते हैं और सनातन क्रिया जैसी शुद्धिकरण क्रियाओं का अभ्यास करते हैं तब आप ऐसे स्तर पर पहुंच जाते हैं। जहां आप पर सुख एवं दुःख का परिणाम होना बंद हो जाता है। आप इच्छाओं को दबाए बिना अपनी इन्द्रियों पर स्वेच्छा से नियंत्रण ला पाने में सक्षम हो जाते हैं। इसी कारण से आपके जीवन में घटने वाली घटनाएं अगर न भी बदलें तब भी आप पर उनका सुख या दुःख के स्वरुप में परिणाम नहीं हो पाएगा। इसी को कर्मों से ऊपर उठना कहते हैं। केवल एक योगी ही वैराग्य के ऐसे स्तर पर पहुंच पाता है और जो कार्य वैराग्य के आधार से किया जाता है उसे कर्मों में नहीं तोला जाता।

 

हमारे ऋषि-मुनि जो अब तक हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में ध्यान कर रहे हैं और अपने आप को दीर्घकाल के लिए स्थिरता के स्थिति में रख पाते हैं। वे कर्मों के इस सिद्धांत को भली भांति जानते हैं। वे इस तथ्य को जानते हैं कि केवल स्थिरता द्वारा ही वे आध्यात्मिक उन्नति कर आत्मसाक्षात्कार का अनुभव कर पाएंगे। आत्मसाक्षात्कार होना केवल तभी संभव है जब व्यक्ति के इर्द-गिर्द के उसके कर्मों की लहरें स्थिर होकर थम जाएं। इसी स्थिति को शून्य की स्थिति कहा गया है। यह वह स्थिति है जिसे बुद्धि से समझना संभव नहीं अपितु उस स्थिति का अनुभव करना ही उचित है। यही स्थिति स्थाई आनंद की स्थिति होती है।

योगी अश्विनी जी
www.dhyanfoundation.com

 


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