सुख से वैभव संपन्न जीवन जीने की चाह है तो अवश्य पढ़ें...

Wednesday, Nov 09, 2016 - 03:25 PM (IST)

दुनिया का रंग-ढंग देखकर एक संन्यासी के मन में विशाल आश्रम बनाने का जुनून सवार हो गया। आर्किटैक्ट को बुलाकर उसका नक्शा तैयार करवाया और इस बात की खासतौर पर हिदायत दी कि पूरा आश्रम सुख-सुविधा से सम्पन्न होना चाहिए। उसकी भव्यता का कोई मुकाबला न कर सके और देश-विदेश में फैले उनके अनुयायियों को आश्रम आने पर किसी कठिनाई का अनुभव भी न हो।

 

वह उसके लिए रात-दिन परिश्रम करने लगे। गांव-गांव, शहर-शहर घूमकर धन इकट्ठा करने लगे। समय के साथ उनकी लालसा भी बढऩे लगी। उनकी साधना पर धन हावी हो गया। एक दिन सांझ ढले उनकी मुलाकात अपने ही एक शिष्य से हो गई। शिष्य ने आग्रह करके उन्हें अपने घर रोक लिया। गुरु ने बात-बात में खुशी-खुशी अपनी योजना बता दी।

 

शिष्य ने गुरु का मन-प्राण से आवभगत किया। भोजन करवाने के बाद उनके सोने के लिए खाट पर अपनी एकमात्र दरी बिछा दी और खुद खुरदरी जमीन पर सो गया। उसके चेहरे पर सुकून था। लेकिन संन्यासी को दरी पर नींद नहीं आ रही थी, मोटे गद्दे पर सोने की आदत जो हो गई थी। वह रात भर सो नहीं पाए। सुबह संन्यासी ने शिष्य से पूछा कि कठोर जमीन पर चैन से कैसे सो लेते हो? उसने जवाब दिया, ‘‘आपने ही तो कहा था कि सत्कर्म और संतोष के विचार को अपने मन में जिंदा रखो, जीवन में न तो कभी दुख होगा और न साधना से डिगोगे।’’ 

 

यह सुनकर संन्यासी जाने को खड़े हुए तो शिष्य ने अपना धर्म निभाते हुए पूछा, ‘‘क्या मैं भी आपके साथ आश्रम के लिए धन एकत्रित करने चल सकता हूं।’’ 

 

तब संन्यासी ने उत्तर दिया, ‘‘अब उसकी जरूरत नहीं। तुमने वह ज्ञान दिया जो मैं भूल बैठा था। तुमने सिखा दिया कि मन का सच्चा सुख कहां है। अब किसी आश्रम की इच्छा नहीं है।’’

 

वस्तुत: मन के अंदर हर तरह के भाव होते हैं, वह संतोषी भी बनाता है और भटकने का इंतजाम भी करवा देता है। अगर हम मन की चंचलता पर काबू पा लें तो हमसे बड़ा सुखी प्राणी और कोई नहीं है। चंचलता हमारे मन को छोटा करती है और यही हमारे सारे दुखों की वजह है। हम चाहते हैं सुख, मिलता है दुख। मन छोटा होगा तो सुख भी छोटा होगा। मन बड़ा होगा तो सुख भी उतना ही बड़ा होगा।
 

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