स्वयं की स्वाभाविक स्थिति में ही परमेश्वर को समझना है संभव

Thursday, Dec 21, 2017 - 12:31 PM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 

अध्याय 7: भगवदज्ञान 

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रता:॥ 28॥


अनुवाद एवं व्याख्या-
जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किए हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है वे मोह के द्वंद्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं। इस अध्याय में उन लोगों का उल्लेख है जो दिव्य पद को प्राप्त करने के अधिकारी हैं। जो पापी, नास्तिक, मूर्ख तथा कपटी हैं उनके लिए इच्छा तथा घृणा के द्वंद्व को पार कर पाना कठिन है। केवल ऐसे पुरुष भक्ति स्वीकार करके क्रमश: भगवान के शुद्धज्ञान को प्राप्त करते हैं जिन्होंने धर्म के विधि-विधानों का अभ्यास करने, पुण्यकर्म करने तथा पापकर्मों के जीतने में अपना जीवन लगाया है। फिर वे क्रमश: भगवान का ध्यान समाधि में करते हैं। आध्यात्मिक पद पर आसीन होने की यही विधि है। ऐसा पद-प्राप्ति शुद्धभक्तों की संगति में कृष्णभावनामृत के अंतर्गत ही संभव है क्योंकि महान भक्तों की संगति से ही मनुष्य मोह से उबर सकता है।

 

श्रीमद्भागवत में (5.7.2) कहा गया है कि यदि कोई सचमुच मुक्ति चाहता है तो उसे भक्तों की सेवा करनी चाहिए। (महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्ते:) किंतु जो भौतिकवादी पुरुषों की संगति करता है वह संसार के गहन अंधकार की ओर अग्रसर होता रहता है। (तमोद्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम्)। भगवान के सारे भक्त विश्व भर का भ्रमण इसलिए करते हैं कि जिससे वे बद्धजीवों को उनके मोह से उबार सकें। मायावादी यह नहीं जान पाते कि परमेश्वर के अधीन अपनी स्वाभाविक स्थिति को भूलना ही ईश्वरीय नियम की सबसे बड़ी अवहेलना है। जब तक वह अपनी स्वाभाविक स्थिति को पुन: प्राप्त नहीं कर लेता तब तक परमेश्वर को समझ पाना या संकल्प के साथ उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में पूर्णतया प्रवृत्त हो पाना कठिन है। 

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