Kundli Tv- ब्रह्मचर्य पालन का पालन करना चाहते हैं तो करें ये काम

Sunday, Jul 22, 2018 - 01:40 PM (IST)

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हिंदू धर्म में ब्रह्मचारी को गुरु के घर में एक दास की भांति रहना पड़ता है और द्वार-द्वार भिक्षा मांग कर गुरु के पास लानी होती है। उसे गुरु के आदेश पर ही भोजन करना होता है और यदि किसी दिन गुरु शिष्य को भोजन करने के लिए बुलाना भूल जाए तो शिष्य को उपवास करना होता है। ब्रह्मचर्य पालन के ये कुछ वैदिक नियम हैं।

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।। 28।।


अनुवाद एवं तात्पर्य
जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है।

यह श्लोक सातवें तथा आठवें अध्यायों का उपसंहार है, जिनमें कृष्णभावनामृत तथा भक्ति का विशेष वर्णन है। मनुष्य को अपने गुरु के निर्देशन में वेदाध्ययन करना होता है, उन्हीं के आश्रम में रहते हुए तपस्या करनी होती है।


अपने गुरु के आश्रम में जब छात्र पांच से बीस वर्ष तक वेदों का अध्ययन कर लेता है तो वह परम चरित्रवान बन जाता है। वेदों का अध्ययन मनोधर्मियों के मनोरंजन के लिए नहीं, अपितु चरित्र-निर्माण के लिए है। इस प्रशिक्षण के बाद ब्रह्मचारी को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके विवाह करने की अनुमति दी जाती है। गृहस्थ के रूप में उसे अनेक यज्ञ करने होते हैं, जिससे वह आगे उन्नति कर सके। उसे देश, काल व पात्र के अनुसार तथा सात्विक, राजसी एवं तामसिक दान में अंतर करते हुए दान देना होता है।

गृहस्थ जीवन के बाद वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना पड़ता है, जिसमें उसे जंगल में रहते हुए वृक्ष की छाल पहन कर तथा क्षौर कर्म आदि किए बिना कठिन तपस्या करनी होती है। इस प्रकार मनुष्य ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों का पालन करते हुए जीवन की सिद्धावस्था को प्राप्त होता है। तब इनमें से कुछ स्वर्गलोक को जाते हैं और यदि वे और अधिक उन्नति करते हैं तो अधिक उच्चलोकों को या तो निॢवशेष ब्रह्मज्योति को या वैकुण्ठलोक या कृष्णलोक को जाते हैं। वैदिक ग्रंथों में इसी मार्ग की रूपरेखा प्राप्त होती है। 


इदं विदित्वा शब्द सूचित करते हैं कि मनुष्य को भगवद्गीता के इस अध्याय में तथा सातवें अध्याय में दिए हुए कृष्ण के उपदेशों को समझना चाहिए। उसे विद्वता या मनोधर्म से इन दोनों को समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए, अपितु भक्तों की संगति से श्रवण करके समझना चाहिए।

सातवें अध्याय से लेकर बारहवां अध्याय भगवद्गीता का सार रूप है। प्रथम छ: अध्याय तथा अंतिम छ: अध्याय इन मध्यवर्ती अध्यायों के लिए आवरण मात्र हैं जिनकी सुरक्षा भगवान करते हैं। यदि कोई गीता के इन छ: अध्यायों को भक्त की संगति में भली-भांति समझ लेता है तो उसका जीवन समस्त तपस्याओं, यज्ञों, दानों, चिन्तनों को पार करके महिमामण्डित हो उठेगा।


जिसे भगवद्गीता में तनिक भी श्रद्धा नहीं है, उसे किसी भक्त से भगवद्गीता समझनी चाहिए, क्योंकि चौथे अध्याय के प्रारंभ में ही कहा गया है कि केवल भक्तगण ही गीता को समझ सकते हैं। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भक्त से भगवद्गीता पढ़े, मनोधर्मियों से नहीं। भक्त की संगति प्राप्त हो जाती है, उसी क्षण से भगवद्गीता का वास्तविक अध्ययन तथा उसका ज्ञान प्रारंभ हो जाता है। आगे बढऩे पर वह कृष्ण के प्रेम में पूर्णतया अनुरक्त हो जाता है। यह जीवन की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था है, जिससे भक्त कृष्ण के धाम, गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है, जहां वह नित्य सुखी रहता है। इस प्रकार श्रीमद् भगवद्गीता के आठवें अध्याय ‘‘भगवत्प्राप्ति’’ का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ। 

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Jyoti

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