इसलिए जरूरी है देवप्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा

Wednesday, Jan 24, 2018 - 01:04 PM (IST)

जब भी लोग किसी देवमूर्ति को घर के मंदिर में लाते हैं तो पूरे विधि विधान से इसकी पूजा की जाती है। इस प्रतिमा में जान डालने की विधि को ही प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं। यह मूर्ति को जीवंत करती है जिससे की यह व्यक्ति की विनती को स्वीकार कर सके। प्राण-प्रतिष्ठा की यह परंपरा हमारी सांस्कृतिक मान्यता जुड़ी है कि पूजा मूर्ति की नहीं की जाती, दिव्य सत्ता की, महत् चेतना की, की जाती है। सनातन धर्म में प्रारंभ से ही देव मूर्तियां ईश्वर प्राप्ति के साधनों में एक अति महत्वपूर्ण साधन की भूमिका निभाती रही हैं। अपने इष्टदेव की सुंदर सजीली प्रतिमा में भक्त प्रभु का दर्शन करके परमानंद का अनुभव करता है और शनै: शनै: ईश्वरोन्मुख हो जाता है। देवप्रतिमा की पूजा से पहले उनमें प्राण-प्रतिष्ठा करने की पीछे मात्र परंपरा नहीं, परिपूर्ण तत्त्वदर्शन सन्निहित है। 


कैसे करें देवप्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा
सबसे पहले देव प्रतिमा को शुद्ध जल से स्नान कराएं और इसे साफ मुलायम कपड़े से पोंछ लें। 
प्रतिमा को सुंदर वस्त्र पहनाएं व प्रभु की प्रतिमा को स्वच्छ जगह पर विराजित करें।
विविध पुष्पों से शृंगार, चंदन का लेप आदि करके प्रतिमा को इत्र अर्पित करें।
बाद में इनके सम्मुख धुप दीप प्रज्जवलित करें तथा स्तुति, आरती और नैवेद्य अर्पित करकें जिस देवता या देवी की मूर्ति हो, उनके बीज मंत्र का जप विधि से करें।
हर दिन सुबह और शाम को इस क्रम में पूजा करके अपने इष्ट को प्रसन्न करें।


प्राण-प्रतिष्ठा दो प्रकार से होती है। प्रथम चल-तथा द्वितीय अचल। अचल में मिट्टी या बालू से बनी मूर्तियों का आह्वान और विसर्जन किया जाता है किंतु लकड़ी और रत्नयुक्त मूर्ति का आह्वान या विसर्जन करना ऐच्छिक है। 


यह समस्त कार्य तभी सफल होते हैं जब प्रतिमा प्राण प्रतिष्ठित हो अन्यथा सारी पूजा उपासना व्यर्थ हो जाती है। कहा गया है कि जो मनुष्य अप्रतिष्ठित देव प्रतिमा का पूजन नहीं करता है, उसके अन्न को देवता ग्रहण नहीं करते। अत: घर आदि अप्रतिष्ठित प्रतिमा हो तो उसका त्याग कर देना चाहिए।


किस नक्षत्र में किस देवता की प्रतिष्ठा श्रेष्ठ होती है इस संबंध में बताया गया है कि रोहिणी, तीनों उत्तरा, रेवती, धनिष्ठा, अनुराधा मृगशिरा, हस्त, पुनर्वसु, अश्विनी और पुष्य नक्षत्र में विष्णु की, पुष्य, श्रवण और अभिजीत में इंद्र, ब्रह्मा, कुबेर एवं कार्तिकेय की, अनुराधा में सूर्य की, रेवती में गणेश व सरस्वती तथा हस्त और मूल में दुर्गा की प्रतिष्ठा करना श्रेष्ठ रहता है। माहों में चैत्र, फाल्गुन, ज्येष्ठ, वैशाख और माघ समस्त देवताओं को प्रतिष्ठा के लिए उपयुक्त रहते हैं तिथियों में द्वादशी तिथि भगवान विष्णु, चतुर्थी गणेश तथा नवमी तिथि दुर्गा की प्रतिष्ठा के लिए विशेष रूप से निर्धारित की गई है। वारों के लिए कहा गया है कि-


तेजस्विनी क्षेमकृदग्रिहाद विधायिनी स्याद्वनदा दृढा च।
आनंदनकृत कल्पविनाशिनी च सूर्यदिवारेषु भवेत्प्रतिष्ठा।।


अर्थात रविवार को की गई प्रतिष्ठा तेजस्विनी, सोमवार को कल्याण कारिणी, मंगलवार को अग्रिदाह कारिणी, बुधवार को धन दायिनी, वीरवार को बलप्रदायिनी, शुक्रवार को आनंददायिनी, शनिवार को सामर्थ्य विनाशिनी होती है। धर्म ग्रंथों में स्पष्ट कहा गया है कि जो प्रतिमा खंडित हो जाए उसका पूजन नहीं करना चाहिए।

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