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Thursday, Jun 28, 2018 - 06:47 PM (IST)

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भारतीय संस्कृति में दान की परम यशस्वी परम्परा रही है। सनातन धर्म का कथन है कि-हस्तष्य भूषणं दानं। हाथ की शोभा दान से होती है। सनातन धर्म के अतीत में 100 हाथ से अर्जन कर 1000 हाथों से लोकहित में व्यय करने अथवा दान करने की परम्परा रही है। शास्त्र मत है ‘शतहस्त: समाहार सहस्त्र हस्त: संकिर।’

वास्तव में दान इस संसार का एक धर्म है जो मनुष्य को संवेदनशील, विनम्र और यशस्वी बनाता है। इस असार संसार की कोई भी चीज अपने साथ जाने वाली नहीं है। बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी, मानी, अभिमानी और धनकुबेर चले गए पर आज उनका नाम लेने वाला कोई नहीं है। दान वस्तुत: दाता के हजार दोषों पर पर्दा डालते हुए उसे यशस्वी बनाता है। धर्म, अर्थ, काम, लज्जा, हर्ष और भय दान के छ: अधिष्ठान हैं। दानी के हृदय में संवेदना और करुणा का सागर लहराता रहता है।

भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं, हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ दान, हवन, तप आदि जो कुछ भी शुभ कर्म है सब असत हैं। वे न तो इस लोक के हित में हैं और न ही मरने के बाद किसी काम के रहेंगे।



छान्दोग्य उपनिषद में यज्ञ, स्वाध्याय और दान को ही धर्म की संज्ञा दी गई है। विनीत भाव से दिया गया दान ही सच्चा दान है। अहंकार पूर्वक दिया गया दान दाता की र्कीत का क्षरण करता है।

दानवीरों की लम्बी शृंखला ने इस महान देश को गौरवान्वित किया है। अथर्ववेदी ऋषि दधीचि ने देव समाज के हित में अपनी अस्थियों को दान कर अमरत्व का वरण किया। अश्विनी कुमारों को ब्रह्म विद्या का उपदेश देने वाले इस अद्वितीय दानी ने प्राण दान करके देव समाज की रक्षा की। उनकी हड्डी से निर्मित वज्र से वृत्तासुर मारा गया। सर्वस्व दान करने वाले अंग नरेश कर्ण का नाम सदैव अमर और प्रेरणास्पद बना रहेगा। अधर्म और अन्याय की प्रतिमूर्ति दुर्योधन कर्ण का मित्र था फिर भी द्वापर के महाभारत काल के इस महान दानी का नाम लोग बड़े आदर के साथ लेते हैं। खलील जिब्रान कहते हैं, ‘‘ऐसे भी लोग हैं जिनके पास बहुत थोड़ा है फिर भी वे सारा का सारा दे डालते हैं। ये जीवन तथा जीवन की सम्पन्नता में आस्था रखने वाले वे लोग होते हैं जिनका भंडार कभी खाली नहीं होता। जो प्रसन्न होकर दान करते हैं, उनकी प्रसन्नता ही सर्वोत्तम उपहार है।’’



दान की तीन श्रेणियां हैं : अभिगम्योत्तमं दानं आहूतं च मध्यनम्॥ अधमं याच्चमानं च सेवा दानं च निष्फलम्॥ 

यैचक के पास स्वयं जाकर दिया गया दान उत्तम, बुलाकर दिया गया दान मध्यम तथा सेवा प्राप्त करने के बदले दिया गया दान अधम श्रेणी का माना गया है। 

वस्तुत: श्रद्धापूर्वक दिया गया दान ही श्रेयस्कर और सार्थक होता है। भारतीय इतिहास में सर्वस्वदान कर देने वाले सत्यनिष्ठ महाराजा हरिश्चंद्र एवं दानवराज बलि की र्कीत-कथा आज तक संसार की जिह्वा पर है।

एक बार प्रसंगवश संत तुलसीदास ने तत्कालीन जनकवि, भक्त और दाता रहीम (अब्दुर्रहमान खानखाना) से पूछा कि दान देते समय आप अपना सिर क्यों झुकाए रहते हैं?



संत तुलसीदास प्रश्र करते हैं-
सीखी कहां नवाब जू, ऐसी 
देनी देन।
ज्यों-ज्यों कर ऊपर करत, 
त्यों-त्यों नीचो नैन॥
इस पर दानी रहीम उत्तर देते हैं-
देनदार कोई और है
देत रहत दिन रैन।
लोग भरम मुझ पर करत
तासो नीचो नैन॥
दान के लिए परमार्थ दृष्टि अनिवार्य है। कहा गया है-
वृक्ष कबहुं न फल भखै,
नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, 
साधुन धरा शरीर।

दुर्भाग्यवश पाश्चात्य जगत का पदार्थवाद लोगों को आत्मकेन्द्रित बनाता जा रहा है। लोग शिवि, दधीचि, मोरध्वज, बलि, कर्ण और त्यागमूर्ति हरिश्चन्द्र को भूलते जा रहे हैं। जब भगवान वामन बलि से दान मांगने आए थे, तब गुरु शुक्राचार्य ने दानवेन्द्र बलि को समझाते हुए कहा था कि अर्जित धन को पांच भागों में बांट देना चाहिए। धन का कुछ भाग धर्म के लिए, कुछ भाग यश के लिए, कुछ धन की वृद्धि के लिए, कुछ भोग के लिए और कुछ स्वजनों के लिए रखना चाहिए। तुम तो आत्मघाती कदम उठा रहे हो, जब वृक्ष ही नहीं रहेगा तब फल कहां से आएगा परन्तु बलि ने सब कुछ जान बूझ कर भी सर्वस्व वामन के चरणों पर न्यौछावर कर दिया।


अंगराज कर्ण ने कवच कुंडल, इंद्र से प्राप्त पांच अमोघ बाण, घर के चंदन निर्मित द्वार-खिड़कियां तक दान में दे दीं और मृत्यु समय में भी अपने सोने के दांत को भी स्वयं से उखाड़ कर ब्राह्मण वेश धारी श्री कृष्ण के हाथों पर रख दिया।
ठीक ही कहा है-
तन से सेवा कीजिए,
मन से भले विचार।
धन से इस संसार में
करिए पर उपकार।
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Niyati Bhandari

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