Holi: 'राम के हाथ कनक पिचकारी सीता हाथ अबीर अवध में होरी खेले रघुवीर'

Saturday, Mar 19, 2022 - 12:51 PM (IST)

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संती बयार जब मन के द्वार पर दस्तक देने लगती है, तब पायलों की छुम छनन, खेत-खालिहान की सोंधी सुगंध ननद-भौजाई की चुहल, देवर की ठिठोली और भर फागुन बुढ़वा देवर लागे की आलाय मन-प्राणों में होली की रंग भर देती है गोरिया का मन अनंग को आमंत्रित करता है - 

‘मादक हुई बयार, रंग से चुनर भीजे
 गोरी हुई बयार कहो तुम अब क्या की जे, 
केसर अबीर चंदन टेसु, रंग कौन सा लीजे।’

सचमुच होली का पर्व उल्लास और उन्माद का पर्व है। फागुनी हवा मन को बौरा देती है मन कुहकने लगता है, रूप छलकने लगता है, प्रीत गमकने लगता है। एक तरफ अल्हड़ गोरी ‘झुलनी हेराइल एही ठईया हो रामा’ की बात करने लगती है तो वहीं परदेशी पिया के नहीं आने से उदास गोरी कहने लगती है-

‘उससे खेली होली जिसे ज्ञात नहीं 
फागुन क्या होता है, उसे दे दिया मन, 
जिसे ज्ञात नहीं मन क्यों होता है।’

पिया के साथ होली का रंग हिया को रंग जाता है। जन्म जन्म का सोचा हुआ प्यार, शादी के पहले पिया के संग होली खेलने का यथार्थ जब मन की दहलीज को चूम जाता है, तब जिंदगी भावन की शराबी नशा में बहकने लगता है, मन की अगना छुई-मुई हो जाती है-

‘जीजा के व्यहार से 
साली मालामाल,
देवर-भाभी साथ तब 
मौसम लाल गुलाल’

लेकिन होली में कुंवारा मन भी पीछे नहीं रहता है, साल भर इन्तजारी के बाद होली के दिन छूट मिलती है-तन रंगने की, मन रंगने की। बुरा न मानो होली है, के साथ कभी-कभी रागात्म रिश्ता सीमा को पार करके देह की देहरी को लांघने लगता है, तब रंगारंग की रंगात्मक होली कलंकित हो जाती है। होली के आते ही चुनखाली गोरिया रंग में भीगने लगती -

‘रंग बिरंगी चुनर भोर लहरे,
सरकेला अंचरा सर से पिया,
भरि फागुन मदन रस बरसे पिया।’

नफरत के नाम प्रेम का पैगाम है होली 
यह टूटे हुए दिलों को जोड़ती है। यह बिछुड़े मन को जोड़ती है, जात-पात के दीवार को ढहा देती है। प्रेम का रंग अबीर बन उड़ता है। भ्रष्टाचार की होली जलती है लेकिन आज नेताओं ने जात और जमात के नाम पर आदमी को इस तरह से बांट दिया है कि होली का असली अर्थ ‘हो-ली’ यानी मिलन ही समाप्त हो गया है। पहले के जमाने में ऊंच और नीच,  दलित और सवर्ण सभी मिलकर फाग गाते थे। एक दूसरे के यहां पुआ-पकवान खाते थे लेकिन आज गांव में होली का पहले वाला रंग बेरंग हो रहा है। अब यह स्थिति नहीं है कि ‘आज होली काल्ह होली पंजरा होली’। 

कौन छोटा-कौन बड़ा
होली के रंग में रंगे चेहरे को देखकर आप नहीं कह सकते है कि कौन हिन्दू है, कौन मुसलमान, कौन अमीर, कौन गरीब, कौन छोटा है, कौन बड़ा? रंग-गुलाल इस फर्क को मिटा देता है। किसी  में कोई भेदभाव नहीं रह जाता है।  होली के रंग से रिश्ते टूटते नहीं जुटते हैं। यही कारण है कि फागुन-गीतों में एक ही शुभकामना है-‘सदा आनन्द रहे यही द्वारे मोहन खेले होली हो’  लेकिन आजकल होली का रंग बदरंग होता जा रहा है। इसके चलते लोग घर बंद कर दिन भर परिवार के सदस्यों के साथ होली मनाने को विवश हैं। कुछ लोग होली के बहाने परायी महिलाओं के दैहिक स्पर्श को ही होली का सुख मानते हैं। 

कुछ लोग धूलखोरी, कीचड़, गोबर, पेंट, जला मोबिल, अलकतरा का प्रयोग करके होली मनाते हैं। यह कार्य काफी हानिकारक है। रंग और गुलाल के अनुराग के बदले अश्लील जोगीरा और फागुन का गायन भी सांस्कृतिक प्रदूषण को बढ़ाता है। आजकल तो अश्लील होली गीतों से पूरा यूट्यूब भरा पड़ा है। जिसका नकारात्मक प्रभाव नई पीढ़ी पर पड़ता है। हमारी सांस्कृतिक परंपरा रहीं है- 

‘राम के हाथ कनक पिचकारी,  
सीता हाथ अबीर, अवध में होरी खेले रघुवीर।’  

आज फागुनी होली के आगमन पर गोरी का मन जवान हो गया है और रंग से मन भीग रहा है। ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली फागुन में।’  शालीनता के साथ होली का स्वागत करते हुए फागुन यही कह कर विदा ले रहा है-

नैन नचाय मुस्काय के कहियो लला,
 फिर ब्रज में खेलन आयो होरी।’

Jyoti

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