मनुस्मृति: विज्ञान भी मानता है शौच के समय Follow करने चाहिए ये Rules

Monday, Apr 13, 2020 - 06:23 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

धर्मशास्त्रों के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से शौच-लघुशंका के समय बोलने, खांसने, हांफने आदि से मल के दूषित कीटाणु शरीर में प्रविष्ट होंगे ही, साथ ही मलाशय शोधन के प्राकृतिक काम में अड़चन भी पड़ जाएगी, जो स्वास्थ्य के लिए परम घातक है।



इसी प्रकार मार्ग में शौच या लघुशंका करना केवल सभ्यता के प्रतिकूल ही नहीं अपितु धर्मशास्त्र के विरुद्ध है। मनुस्मृति में लिखा है कि मनुष्य को मार्ग में, राख के ढेर में, गौशाला, हल जोते हुए खेत में, पानी में, चिता में, पर्वत पर, पुराने निर्जन मंदिर और बांबी में लघुशंका, शौचादि क्रिया नहीं करनी चाहिए। ये नियम नागरिक स्वास्थ्य, स्थानों की पवित्रता और जनसुरक्षा की दृष्टि से बनाए गए हैं।



जहां तक मल-विसर्जन के बाद शुद्धि का संबंध है, पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध व सभ्यता में पले, ऊंची शिक्षा की डींगें मारने वाले यूरोपियन लोगों को शौच-लघुशंका करने का सलीका बिल्कुल नहीं आता।

शौचोपरान्त वे मात्र दो-तीन कागज के टुकड़ों द्वारा गुदा को पोंछना ही आवश्यक समझते हैं, यह गलत है। जल के बिना मल की शुद्धि संभव नहीं। शौचोपरान्त साबुन से हाथ धोने का फैशन भी हर जगह चल निकला है। यह भी गलत है क्योंकि साबुन में क्षार व स्निग्धता होती है। पित्त की प्रधानता के कारण मल के अंदर एक प्रकार का लेस, चिकनाई का सूक्ष्म अंश हाथ में लगा ही रह जाता है। यह अंश सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा देखा जा सकता है।



उस लेस, चिकनाई को दूर करने के लिए मिट्टी जैसी क्षार तत्व वाली वस्तु ही उपयोगी होती है। हम लोग दैनिक जीवन में देखते हैं कि यदि कपड़े पर तेल का दाग पड़ जाता है, तो वह साबुन से नहीं उतरता। शारीरिक शुद्धि में मिट्टी का उपयोग भारतीय ऋषियों की गौरवपूर्ण देन है, जो सर्वसुलभ होते हुए भी अत्यंत गुणकारी है। वानस्पतिक तत्वों के सम्मिश्रण से मिट्टी में रोगों को दूर करने की अद्भुत क्षमता होती है।

Niyati Bhandari

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