संतों के उपदेश से होता है ‘कल्याण’, ये श्लोक है इसका प्रमाण

Thursday, Nov 17, 2022 - 12:24 PM (IST)

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हमारे हिंदू धर्म में जैसे कई पुराण व ग्रंथ आदि हैं ठीक उसी तरह इसमें कई विद्वानों के बारे में भी बताया गया है। आज हम आपको ऐसे ही कुछ महान संतों के द्वारा बताए गए श्लोक से अवगत करवाने जा रहे हैं। तो आइए जानते हैं क्या है ये श्लोक- 

सरवर तरवर संत जन और चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारने, चारों धारी देह॥

भावार्थ : सरोवर (तालाब), वृक्ष, साधु-संत और चौथा बरसता हुआ मेह- ये चारों परोपकार के लिए उत्पन्न होते हैं। जैसे सरोवर के जल से दूसरों की प्यास बुझती है, वृक्ष से छाया, फल फूल, लकड़ी की प्राप्ति होती है, वैसे ही संतों के ज्ञानोपदेश से जीवन कल्याण होता है और मेह बरसने से खेतीबाड़ी, हरियाली तथा अन्न आदि की प्राप्ति होती है।

इंद्रिय मन निग्रह करन, हिरदै कोमल होय।
सदा शुद्ध आचार में,रह विचार से सोय॥

भावार्थ : साधुजन इंद्रियों और मन का निग्रह करने वाले होते हैं अर्थात इंद्रियों एवं मन को विषयों से दूर रखते हुए संयम व पवित्र भाव में स्थिर रहने वाले होते हैं। उनका हृदय बहुत कोमल और आचरण सदा शुद्ध होता है। इसी प्रकार उनके विचार भी पवित्र होते हैं, अर्थात वे मन, वाणी और कर्म से पूर्णत: पवित्र होते हैं।

साधु तो हीरा भया, न फूटै घन खाय।
न वह बिनसै कुंभ ज्यों, न वह आवै जाय॥

भावार्थ : साधु-संत तो हीरे के समान होते हैं। जैसे हीरा घन की चोट पड़ने पर भी नहीं टूटता, उसी प्रकार कैसा भी संकट आ जाए, परंतु साधु विचलित नहीं होते। साधु कच्चे घड़े के समान नहीं हैं जो जरा सी चोट पर टूट जाएं। एकाग्रचित (दृढ़ता) के कारण ही से साधु जन्म-मरण (आवागमन) के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।

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रक्त छाडि़ पय को गहै, ज्यौरे गऊ का बच्छ।
औगुण छांड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ।।

भावार्थ : जिस प्रकार गाय का बछड़ा दूध पीते समय रक्त को छोड़कर बस दूध को ही ग्रहण करता है वैसा ही लक्षण (स्वभाव) साधुजनों का होता है, वे दूसरों के अवगुणों को छोड़कर सद्गुणों को ही धारण करते हैं।

आसन तो एकांत करैं, कामिनी संगत दूर।
शीतल संत शिरोमनी, उनका ऐसा नूर॥।

भावार्थ : संतजन एकांत में आसन लगाते हैं तथा स्त्री की संगत से दूर रहते हैं, अर्थात स्त्री की कामना से मुक्त रहते हैं। संतों के शीतल मधुर स्वभाव का ऐसा दिव्य प्रकाश होता है कि वे ज्ञान से ओत-प्रोत और सबके शिरोमणि तथा वंदनीय होते हैं।

सुख देवै दुख को हरै, दूर करै अपराध।
कहैं कबीर वह कब मिलै, परम स्नेही साध।।

भावार्थ : जो दूसरों को दुख देते हैं, उनके दुख का हरण कर लेते हैं तथा दूसरों के दुर्गुण अपराधों को दूर कर देते हैं, ऐसे परम प्रेमी साधु-संत कब मिलेंगे? अर्थात क्षमा प्रदान करने वाले तथा दयावान प्रेमी साधु बहुत ही कम और कठिन परिश्रम से मिलते हैं।  

Jyoti

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