घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंगः जानें, कैसे विख्यात हुआ देश का अंतिम ज्योतिर्लिंग

Tuesday, Aug 06, 2019 - 09:51 AM (IST)

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ऐसा माना गया है कि सावन का महीना बहुत ही पवित्र व खास होता है। भोलेनाथ के भक्त इस माह का बहुत ही बेसब्री से इस माह का इंतजार करते हैं। क्योंकि इसमें भोलेबाबा का खास पूजन होता है। देश के हर शिव मंदिर में लोगों की भीड़ देखने को मिलती है। वहीं अगर हम बात करें 12 ज्योतिर्लिंगों की तो वहां लोगों का जमावड़ा दिन-रात एक समान ही होता है। लोग बहुत दूर-दूर से ज्योतिर्लिंगों के दर्शनों के लिए आते हैं। कहते हैं कि अगर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से अगर किसी एक के भी दर्शन कर लिए जाएं तो व्यक्ति के भाग्य खुल जाते हैं। ऐसे में आज हम बात करेंगे द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से आखिरी ज्योतिर्लिंग के बारे में, जिसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है।

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र प्रदेश में दौलताबाद से बारह मील दूर वेरुळ गांव के पास स्थित है। दूर-दूर से लोग यहां भोलेबाबा के दर्शनों के लिए आते हैं और आत्मिक शांति प्राप्त करते हैं। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएं इस मंदिर के समीप स्थित हैं। आइए इसके पीछे जुड़ी कथा के बारे में जानते हैं। 
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दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था, दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी। ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया। पहले तो सुधर्मा को यह बात सही नहीं लगी,  लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा और अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। 

घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान शिव की अनन्य भक्ता थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी। 
भगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वास्थ्य बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के ही आनंद का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं। सब कुछ घुश्मा का है।

घुश्मा के युवा पुत्र की शादी हो गई और एक रात सुदेहा ने उस युवा बालक को सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को फेंका करती थी। सुबह होते ही जब सबको इस बात का पता लगा, पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भांति भगवान शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। वह सदा की भांति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा। जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। 

उसी समय भगवान शिव भी वहां प्रकट होकर घुश्मा से वर मांगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखलाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान से कहा- 'प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है किंतु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो! मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।'
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भगवान शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहां घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। 

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