नानक दुखिया सभु संसारु
Saturday, Aug 10, 2019 - 10:35 AM (IST)
ये नहीं देखा तो क्या देखा (Video)
जिस व्यक्ति ने अपने स्वार्थ को त्याग कर मन को शुद्ध कर लिया है और जो संपूर्ण मानवता को अपने भीतर अनुभव करता है वही वास्तविक सुखी है। दूसरों पर दोषारोपण करके हम अपने आप को स्वयं अंधेरे में ही रहने देेते हैं और अपनी दुर्बलताओं को जानबूझ कर छुपाए रखते हैं। ध्यान रहे कि निकृष्ट अथवा तुच्छ विचार अंधकारमय जीवन-यापन के साथ-साथ व्यक्ति को पतन की ओर धकेलते हैं, इस कारण आदर्श जीवन पद्धति के लिए निम्न सिद्धांत सहायक हो सकते हैं।
नरू मरै नरु कामि न आवै॥ पसू मरै दस काज सवारै॥
यदि हम अपनों से नीचे वालों की ओर दृष्टि करेंगे, जिनको भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता, तन पर पूरे कपड़े भी नहीं हैं और जो खुले आसमान में जीवनयापन कर रहे हैं अथवा झोंपडिय़ों में निवास करते हैं। औषधालयों में विभिन्न असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्तियों का तांता लगा हुआ देखेंगे तो आपको निश्चय ही संतुष्टि मिलेगी कि आप भाग्यशाली हैं कि आपके पास भरपेट भोजन है, अच्छे वस्त्र हैं, रहने को मकान है तथा स्वास्थ्य भी ठीक है अर्थात रोटी, कपड़ा और मकान सब कुछ तो है।
यदि हम अपने से ऊपर वालों की ओर देखेंगे, जो बहुत धनवान हैं, अमीर हैं और जिनके पास अपार धन संपदा, मोटर गाड़ी इत्यादि हैं तो इन वस्तुओं को पाने की हमारे मन में अतृप्त कामना जागृत होगी-
‘नानक दुखिया सभु संसारु’
अर्थात- ईश्वर को भूलकर सांसारिक मिथ्या, अतृप्त वासनाएं ही मनुष्य के स्वयं के दुखों का कारण हैं।
इस प्रकार हमारी अशांति दुखों का कारण बनेगी क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति समस्त सुविधाएं प्राप्त करे, यह कदापि संभव नहीं है। ईश्वर की कृपा से हमारे पास जो कुछ उपलब्ध है वह आवश्यकता से अधिक है और जो नहीं है, उसके बिना भी कार्य भली-भांति निर्विघ्न चल सकता है, का विश्वास ही हमें सर्वोच्चता प्रदान करता है क्योंकि जब हम अपने से अधिक दुखी-संतप्त दुनिया को देखते हैं तो वास्तव में हमें अनुभव होने लग जाता है कि हम अधिक भाग्यशाली ही हैं।
इस प्रकार दूसरों के प्रति जो हमारे मन में ईर्ष्या-घृणा उत्पन्न होने लगती है और अहंकार जागृत होने लगता है, परिणाम स्वरूप अतृप्त धन की लालसा हमें आदर्शहीन-तुच्छ कार्य करने को प्रेरित करे, उससे बचा जा सकता है और मन की शांति कायम बनी रहती है :
नीचा अंदरि नीच जाति नीची हू अति नीचु॥ नानकु तिन कै संगि साथि वडिआ सिउ किआ रीस॥ जिथै नीच समालीअनि तिथै नदरि तेरी बखसीस॥ (पन्ना 15)
दूसरों से कुछ प्राप्ति की इच्छा मत रखिए : नित्यप्रति की दिनचर्या में हम दूसरों से अपेक्षाकृत अधिक सहायता, सहानुभूति एवं प्रेम प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, जो संभव नहीं हैं और यही हमारी अशांति का कारण है। यदि समयवश किसी की सहायता अथवा कोई भलाई करनी भी पड़ गई हो तो हम उसके फल की इच्छा भी तुरंत ही करने लग जाते हैं, जो सर्वधा अनुचित है। दूसरों के कुछ भी प्राप्त करने की कामना ही हमारे दुखों का कारण होती है। ‘कर भला, हो भला’ के अनुरूप यदि कोई आपके लिए कुछ कर देता है तो यह उसकी उदारता एवं सहानुभूति ही समझ लेनी चाहिए। यह निश्चय कर लेना उचित ही होगा और सुख प्रदान करेगा कि जीवन की लम्बी डगर बिना सहायता स्वयं को ही तय करनी है :
विचि दुनीआ सेव कमाईऐ॥ ता दरगह बैसणु पाईऐ॥(पन्ना 26)
सेवा करत होइ निहकामी॥ तिस कउ होत परापति सुआमी॥ (पन्ना 286)
परोपकार करना: जहां तक हो सके परोपकार करते रहना चाहिए, इससे मन को शांति मिलती रहती है और मन पवित्र हो जाता है।
हकु पराइआ नानका उसु सूअर उसू गाइ॥ घालि खाइ किछु हथहु देइ॥ नानक राहु पछाणहि सेइ॥ (पन्ना 1245)
जिस व्यक्ति को दिखावटी मान- सम्मान, धन-सम्पदा की अतृप्त आकांशा विचलित नहीं कर पाती और जो कुछ उसके पास ईश्वर की कृपा से उपलब्ध है, उसी में संतुष्ट प्रसन्नचित्त रहता है और उसके चले जाने के उपरांत भी दुख नहीं मानता, दुख में भी सुख अनुभव करता है- ‘‘सुखु दुखु दोनों सम करि जानै अउरु मानु अपमाना॥ हरख सोग ते रहै अतीता तिनि जगि ततु पछाना॥’’ (पन्ना 219)
वही वास्तव में सुखी, शांत और प्रसन्नचित्त व्यक्ति है, इसके विपरीत जिस व्यक्ति के मन में ‘और मिले, और मिले’ की अतृप्ति बनी रहती है और जो कुछ उसके पास है कदापि संतोष नहीं है और जो दूसरों का भी हड़पना चाहता है, किसी की सहायता अथवा भलाई भी नहीं कर सकता, वह व्यक्ति सदैव ही दुखी और अशांत रहता है।