Goswami Tulsidas: इन 3 पापों से मुक्त था राम राज्य!

Saturday, May 08, 2021 - 05:20 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्री राम ने मर्यादाओं को इहलोक व परलोक के सुखों का आधार बताते हुए कहा कि जिस प्रकार नदी का जल दोनों किनारों की मर्यादा में बहता रहे तो नदी जिस क्षेत्र से बहेगी उसको खुशहाल करती जाएगी, परंतु ज्यों ही वह अपने किनारों रूपी मर्यादा को लांघ जाती है तो बाढ़ आती है और अमर्यादित नदी सभी क्षेत्रवासियों को पीड़ित करती है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य के सुख भी मर्यादा पर आधारित होते हैं। इस धर्म के कर्तव्य पालन का प्रभाव प्रकृति तथा पशु-पक्षियों पर भी पड़े बिना नहीं रहा। गोस्वामी तुलसीदास जी पशु पक्षियों के लिए लिखते हैं :

‘खग मृग सहज बयरू बिसराई।
सबनङ्क्षह परस्पर प्रीति बढ़ाई।।’

स्वार्थ त्याग तथा धर्म पालन का प्रकृति पर कर्तव्य निर्वहन का सकारात्मक प्रभाव पड़ा। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि राम राज्य में त्रिविध ताप (पाप) का अभाव था। तीन प्रकार के ताप (ताप) होते हैं : दैहिक, दैविक और भौतिक। ये तीनों ही राम राज्य में बिल्कुल नहीं रह गए थे।

‘दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
राम राज नङ्क्षह काहुङ्क्षह व्यापा।।

धर्म तथा तद्अंतर्गत स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वालों को शोक, रोग आदि दैहिक तापों की पीड़ा कैसे हो सकती थी। भौतिक ताप प्रकृति के उपयुक्त प्रकार से प्रभावित हो जाने के पश्चात कैसे हो सकते थे। दैविक ताप तो सब कर्तव्य विमुख तथा धार्मिक व्यक्तियों को दंड स्वरूप मिला करते हैं, उनकी रामराज्य में स्थिति ही कहां थी।

त्रिविध विषमता का अभाव
राम राज्य में आत्मिक, आंतरिक, ब्राह्यï और आर्थिक विषमताएं बिल्कुल नहीं थीं। सद्भाव, सद्विचार, सद्भावना और परमार्थ ही परम लक्ष्य होने के कारण साधना के द्वारा सभी के अंत:करण शुद्ध हो गए थे,और सभी लोग भगवान की भक्ति में निमग्न होकर परम पद के अधिकारी हो गए थे। इससे उनमें आत्मिक वैषम्य नहीं था। वह सब में अपने भगवान को देखते थे।

आत्मिक विषमता से दूर हो जाने के कारण बाहरी विषमता भी सर्वथा नष्ट हो गई थी। किसी को किसी बात का गर्व करने अथवा छोटे-बड़े का प्रश्न उठाने के लिए अवसर ही न था। शुद्ध अंत:करण वालों को किसी से राग द्वेष अथवा छोटे बड़े का गर्व हो ही कैसे सकता था।

राम राज्य में आर्थिक विषमता भी नहीं थी। इसका अर्थ यह नहीं कि राम राज्य में विशाल व्यापार ही नहीं था। वैश्य वर्ग अपना कर्तव्य समझकर बड़े-बड़े व्यापार करते थे, परंतु रामराज्य में सभी वस्तुएं बिना मूल्य बिकती थीं। जिसको जिस वस्तु की आवश्यकता हो वह उसी वस्तु को बाजार से जितनी चाहे उतने परिमाण में प्राप्त कर सकता था, इसीलिए कोई विशेष संग्रह भी नहीं करता था।

राजा और प्रजा का संबंध
जिस राज्य में पाप अथवा अपराध की कभी स्थिति ही न हो, उस राज्य के लिए श्री गोस्वामी जी के अनुसार :

‘दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज ।
 जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ।।

ऐसी स्थिति हो उस राज्य में तथा जिसमें सम्राट भगवान रामचंद्र प्रजा से कुछ आध्यात्मिक ज्ञान पर कहना चाहते हैं तो हाथ जोड़कर कहते हैं कि ‘यदि आप लोगों का आदेश हो तो मैं कुछ कहूं। आपको अच्छा लगे तो सुनिए अच्छा न लगे अथवा मैं कोई अनीति पूर्ण बात कहूं तो मुझे रोक दीजिए। वहां प्रजा का संतान समान पालन होता था। शोषण जैसा शब्द ही नहीं था। वहां उस राज्य में राजा प्रजा के कैसे क्या संबंध हो सकते हैं यह स्पष्ट है। राम राज्य में सभी व्यक्तियों ने इहलोक और परलोक दोनों को सफल किया था। उस समय के जैसा राज्य  कभी स्थापित नहीं हो सका, इसीलिए आज युगों-युगों के पश्चात भी जनमानस पवित्र रामराज्य को स्मरण करता है।

सार : राम राज्य चाहने मात्र से नहीं बनता। प्रत्येक देशवासी (राजा अथवा रंक) को मर्यादाओं के अंतर्गत अपने-अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूर्ण निष्ठा से करना चाहिए। कर्तव्यों का निर्वहन करने से अधिकार स्वत: ही प्राप्त हो जाते हैं। रामराज्य प्रत्येक वर्ग के लिए आदर्श एवं कलात्मक जीवन जीने की सुंदर प्रेरणा है। अयोध्या में श्री राम मंदिर निर्माण तभी पूर्णता को प्राप्त होगा जब श्री राम के गुणों और शिक्षाओं की नींव जन-जन के आचरण में धरी जाएगी।  (समाप्त)
  —साध्वी कमल वैष्णव

Jyoti

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