आंख झुका कर बात करना, खोलता है दिल में छुपा खास राज

Monday, Feb 06, 2017 - 11:11 AM (IST)

समर्पण में बड़ी ताकत है। जैसे ही हम समर्पण कर देते हैं तो परमात्मा हमें अपने साथ एक कर लेता है। समर्पण करने वाला असीम हो जाता है और सब प्रकार से स्वतंत्र हो जाता है। उसका मन उसके अधीन हो जाता है। समर्पण करने से हम परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं और अपनी आत्मा के देश में पहुंच जाते हैं। आत्मा का सक्रिय होना ही मन का निष्क्रिय होना है। मन से अलग होकर ही हमें अपनी वास्तविकता का पता चलता है। जब हम मन के पार चले जाते हैं तो हमें पता चलता है कि परमात्मा ने हम पर कितनी कृपा की है और हमें क्या से क्या बना दिया है। जब हम अपने जीवन को ध्यानपूर्वक देखते हैं तो पता चलता है कि मैं तो इसके काबिल ही नहीं था परंतु परमात्मा ने मुझे कितना अधिक दिया है। फिर हम किसी भी बात में अपनी बड़ाई नहीं समझते बल्कि हर बात का श्रेय परमात्मा को देते हुए उसके उपकार के बोझ से झुक जाते हैं। 


तुलसीदास जी का एक दोस्त था, जिसका नाम था अब्दुल रहीम। अब्दुल रहीम बादशाह अकबर का साला था। तुलसीदास और अब्दुल रहीम एक-दूसरे से अथाह प्रेम करते थे और एक-दूसरे को बहुत सम्मान देते थे। अब्दुल रहीम बहुत बड़े दानी थे। कोई भी उनके दर से खाली नहीं जाता था। जब भी कोई दान अथवा सहायता मांगने के लिए उनके पास आता था तो वह उससे कोई प्रश्न नहीं पूछते थे बल्कि मांगने वाला जो कुछ भी मांगता था, तत्काल उसे दे देते थे। यहां तक कि वह मांगने वाले की शक्ल भी नहीं देखते थे और अपनी नजरें झुका कर ही उसे दान देते थे। 


उनके इस व्यवहार को देखकर एक दिन तुलसीदास जी ने उनसे इस का रहस्य पूछ ही लिया तो अब्दुल रहीम ने कहा कि मेरा तो कुछ भी नहीं है। न मैं लेने वाले को जानता हूं और न देने वाले को। मुझे तो उसने ऐसे ही माध्यम बना रखा है और यही कारण है कि यह काम करते हुए हर पल मेरी नजरें झुकी रहती हैं। 


देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन, लोक नाम मेरा करत, जा से नीचे नैन।


इसका मर्म यही है कि हम इतने विनम्र हो जाएं कि सब कुछ करते हुए भी अपने आपको इसमें शामिल न करें। नजरें झुकाकर काम करना परमात्मा के साथ जुड़ कर काम करना है। इस बात का भेद बताते हुए महाराज जी ने समझाया कि जब हम किसी के साथ मिलते हैं और बात करते हैं तो हमारी आंखों की स्थिति तीन प्रकार की हो सकती है। पहली- हम आंख उठाकर देखते हैं और बात करते हैं। ऐसे में हम अद्र्धचेतन मन से काम लेते हैं। इसमें हमारा अहंकार भाव प्रबल होता है और हर काम का श्रेय हम स्वयं लेते हैं।


इसके आगे की अवस्था वह है जब हम सामने वाले व्यक्ति की आंखों से आंखें मिलाकर अर्थात अपनी आंखें सीधी करके बात करते हैं। इस अवस्था में हम अपने चेतन मन में होते हैं और यथा स्थिति समझते हुए व्यवहार पूर्वक बात करते हैं। यह अच्छी अवस्था है परंतु हमने इससे भी आगे की स्थिति में चलना है जो कि सर्वश्रेष्ठ स्थिति है और वह है आंखें झुकाकर बात करना। आंखें झुकाकर बात करने का अभिप्राय: अपराध बोध से ग्रस्त होना नहीं बल्कि पूर्ण समर्पित भाव और श्रद्धा भाव से बात करना है। जब हम आंखें झुकाकर बात करते हैं तो हम मन से पार निकलकर अपने दिल में उतर जाते हैं। फिर हम अपने सामने किसी आम आदमी को नहीं बल्कि परमात्मा को खड़ा हुआ महसूस करते हैं। फिर हमें कुछ बोलने अथवा कहने की आवश्यकता नहीं रहती बल्कि हमारे दिल की बात झट से दूसरे के दिल में पहुंच जाती है। इसी अवस्था के बारे में शायर ने कितना सुंदर लिखा है-

नकार नकार से मिली, मुलाकात हो गई, 
दिल से दिल मिला, दिल की बात हो गई। 

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