अहंकार करने से इंसान की हमेशा होती है हार

Monday, Apr 29, 2019 - 05:14 PM (IST)

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ऋषि अंगिरा का एक प्रतिभाशाली शिष्य था उदयन। वैसे तो उदयन सर्वगुण संपन्न था लेकिन उसमें एक खामी थी। उसको अपनी श्रेष्ठता का दंभ हो चला था और उसमें अपनी प्रतिभा के स्वतंत्र प्रदर्शन की उमंग रहती थी। वह यदा-कदा अपने साथी-सहयोगियों से अलग-अपना प्रभाव दिखाने का प्रयास किया करता था।

उसकी इस आदत को देखकर ऋषि अंगिरा ने सोचा कि उनके प्रिय शिष्य की यह वृत्ति उसे ले डूबेगी और समय रहते इसमें सुधार करना जरूरी है। उस समय सर्दी का मौसम था। ऋषि अंगिरा अपने शिष्यों के साथ बैठे सत्संग कर रहे थे और उनके बीच में रखी एक अंगीठी में कोयले दहक रहे थे।

अचानक ऋषि अपने शिष्यों से बोले, ‘‘दहकती हुई अंगीठी से हमें गर्मी मिल रही है। इसका श्रेय इसमें दहक रहे कोयलों को है न?’’ 

उनकी बात सुनकर सभी शिष्यों ने सहमति में सिर हिलाया। थोड़ी देर बाद ऋषि पुन: बोले, ‘‘देखो, इस अंगीठी में दहक रहा अमुक कोयला सबसे बड़ा और सबसे अधिक दहक रहा है। तुम लोग ऐसा करो कि इसे निकालकर मेरे पास रख दो। मैं इसकी ऊष्मा का लाभ निकट से लेना चाहता हूं।’’

शिष्यों ने चिमटे से पकड़कर वह बड़ा दहकता अंगार उठाया और ऋषि के समीप रख दिया। सत्संग की चर्चा पुन: चल पड़ी। पर यह क्या, जो अंगार अंगीठी में बेहद तीव्रता के साथ दहक रहा था, वह जल्द ही मुरझाने लगा। उस पर राख की परत आ गई और थोड़ी ही देर में वह काला कोयला भर रह गया। ऋषि ने वह कोयला शिष्यों को दिखाते हुए कहा, ‘‘तुम सब चाहे जितने तेजस्वी हो, पर अपने जीवन में इस कोयले जैसी भूल कभी मत कर बैठना। यह कोयला यदि अंगीठी में रहता तो अन्य कोयलों की तपिश के साथ अंत तक दहकता रहता और सबसे बाद तक गर्मी देता। पर अकेले यह ज्यादा देर तक नहीं टिक सका। अब न तो इसका श्रेय रहा और न ही इसकी प्रतिभा का लाभ हम उठा सके।’’

यह सुनने के बाद उदयन समेत बाकी शिष्यों को भी समझ में आ गया कि ऋषि-परंपरा वह अंगीठी है, जिसमें प्रतिभाएं संयुक्त रूप से सार्थक होती हैं। व्यक्तिगत प्रतिभा का अहंकार न तो ज्यादा देर टिकता है और न ही फलित होता है। 

Lata

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