चार धामों में एक द्वारकाधाम, जानें इतिहास

punjabkesari.in Tuesday, Dec 27, 2016 - 01:32 PM (IST)

ऐसी मान्यता है कि 5000 साल पहले मथुरा छोडऩे के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारकानगरी बसाई थी। जिस स्थान पर उनका निजी महल ‘हरि गृह’ था, वहां आज का प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मूल मंदिर का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने करवाया था।


समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार करवाया जाता रहा। मौजूदा स्वरूप 16वीं शताब्दी का है। मंदिर के दो प्रवेश द्वार हैं। दक्षिण के प्रवेश द्वार की लगभग 50 सीढिय़ां चढऩे पर मन्दिर का प्रवेश द्वार आता है, इसे ‘स्वर्ग द्वार’ कहते हैं। दूसरा उत्तर की आेर द्वार है, जिसे मोक्ष द्वार कहते हैं। सामान्यत: दक्षिण प्रवेश द्वार से प्रवेश करते हैं। मन्दिर के अंदर भगवान द्वारकाधीश जी की मूर्ति पश्चिम मुख है, जो काले पत्थर से बनी है। भगवान श्रीकृष्ण गदा, चक्र, शंख और पद्म धारण किए हुए हैं। भगवान के इस स्वरूप का दर्शन अद्वितीय, अप्रतिम और दुर्लभ है। एेसी अद्भुत छवि को भक्त गण देखते ही रह जाते हैं। द्वारकानाथ जी के मंदिर के सामने मां देवकी का मंदिर है। मंदिर के अंदर शिल्प आकृतियां हैं, मूर्तियां पत्थर पर उकेरी गई हैं। मंदिर में लगे खम्भे एक ही पत्थर को तराश कर बनाए गए हैं, जिनकी सुन्दरता देखते ही बनती है। श्रद्धालु भाव-विभोर होकर सभी मूर्तियों के दर्शन करते हैं। दर्शन के बाद वे जयकारे लगाते दूसरे द्वार यानी ‘मोक्ष द्वार’ से बाहर निकल जाते हैं। द्वारका और उसके आसपास कई धार्मिक स्थल हैं, जिनसे श्रीकृष्ण के प्रसंग जुड़े बताए जाते हैं। 


बेट द्वारका : यह द्वारका  से 35 कि.मी. दूरी पर कच्छ की खाड़ी में टापू पर स्थित है। बेट यानी टापू पर स्थित होने के कारण उसे ‘बेट द्वारका’ कहा गया है। इसके चारों ओर समुद्र है। ‘बेट द्वारका’ जाने के लिए स्टीमर का इस्तेमाल किया जाता है। यहां भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिर के साथ उनकी रानियों के भी मन्दिर हैं। 


द्वारकानाथ जी के स्वरूप को द्वारका से ‘बेट द्वारका’ लाकर उन्हें स्थापित किया गया था। यहां माता देवकी, लक्ष्मी जी और सत्यभामा विराजमान हैं। इसके अतिरिक्त राधिका जी, गोवर्धन जी सत्यनारायण, दाऊ जी आदि के मन्दिर हैं। इस पवित्र भूमि पर अनेक साधु-संतों, योगियों ने वर्षों तपस्या करके सिद्धि प्राप्त की।


श्री रुक्मिणी मन्दिर : भगवान श्रीकृष्ण की आठ पटरानियों में माता रुक्मिणी का विशिष्ट स्थान है। भगवान ने उनका हरण कर द्वारका लाकर उनके साथ विवाह किया था। द्वारका मन्दिर से लगभग 2 कि.मी. दूर माता रुक्मिणी का मन्दिर है। कहा जाता है कि दुर्वासा ऋषि जब इस क्षेत्र में आए तो भगवान ने उन्हें द्वारका आने का निमंत्रण दिया।  ऋषि ने कहा हम एेसे रथ में नहीं बैठते जिसमें पशु जुते हों।


अत: श्रीकृष्ण और रूक्मिणी जी ने दुर्वासा जी को रथ पर बिठाकर रथ स्वयं खींचना शुरू किया। रास्ते में रूक्मिणी जी को प्यास लगी। प्रभु ने पैर का अंगूठा जमीन में दबाया और पानी निकल आया। माता रूक्मिणी ने प्यास  बुझाई, यह देख दुर्वासा ऋषि क्रोधित हो गए कि मेरी अनुमति के बिना पानी क्यों पिया और श्राप दे डाला कि तुम लोगों का वियोग हो जाएगा। इसी कारण रुक्मिणी जी का मन्दिर भगवान के मन्दिर से दूर बनाया गया।


हरसिद्धि माता का मन्दिर : समुद्र किनारे एक टेकरी पर यह मन्दिर स्थित है। मां सभी को हर्ष देने वाली हैं इसलिए इन्हें ‘हर्षद मां’ कहा गया। कहा जाता है कि शंखासुर नाम का राक्षस वहीं किसी टापू पर रहता था। श्रीकृष्ण सहित अन्य बालक गुरु संदीपनि के आश्रम में विद्या अभ्यास करते थे। गुरु पुत्र को वह असुर उठाकर ले गया। श्रीकृष्ण की शिक्षा पूर्ण होने पर गुरु माता ने दक्षिणा के रूप में अपने पुत्र को मांगा। भगवान श्रीकृष्ण ने हर्षद माता की सहायता से टापू पर पहुंच कर असुर का वधकर गुरु पुत्र को लाकर गुरु माता को सौंप दिया। श्रीकृष्ण ने यहां मन्दिर बनाकर ‘हर्षद मां’ मन्दिर की स्थापना की।


सुदामापुरी पोरबन्दर : श्रीकृष्ण के बाल सखा सुदामा जी यहां रहते थे। सुदामा जी का जीवन निर्धनता में बीत रहा था। पत्नी की सलाह पर सुदामा जी अपने बाल सखा श्रीकृष्ण से मिलने गए। सुदामा जी ने साथ लाए तंदुल (चावल) श्रीकृष्ण को खाने को दिए जिसका पुण्य उन्हें मिला और उनकी गरीबी सदा के लिए दूर हो गई।


जेठवा राजवंश ने यहां मंदिर का निर्माण करवाया था। पोरबन्दर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मस्थान की वजह से जाना जाता है। गांधी जी के भवन का नाम र्कीत मन्दिर है, जो ऐतिहासिक धरोहर के रूप में संरक्षित है। पास ही कस्तूरबा गांधी जी का भी निवास स्थान है।


नागेश्वर ज्योर्तिलिंग: नागेश्वर का मतलब, नाग का ईश्वर। द्वारका से बेट द्वारका जाने वाले मार्ग पर यह मन्दिर स्थित है। यह भगवान शंकर के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है। मंदिर के बाहर प्रांगण में भगवान शिव की विशाल मूर्त है, जो दूर से ही दिख जाती है। इस ज्योर्तिलिंग के बारे में एक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि यहां दारूक नाम के दानव ने उत्पात मचा रखा था। एक बार उसने काफिले को पकड़ा, जिसमें सुप्रिय नामक शिवभक्त भी शामिल था। वह स्वयं पूजा करता और दूसरों को भी पूजा करने के लिए प्रेरित करता था। दारूक ने सुप्रिय को मार डालने का आदेश दिया, तो उसने भगवान शंकर को याद किया। अचानक जमीन से ज्योति निकल आई। ज्योति के रूप में भगवान शिव अपने परिवार सहित विराजमान थे। भगवान शिव ने अपने भक्त को अभय दान देकर दानव का नाश किया। यहीं शिव मन्दिर की स्थापना हुई। द्वारका को सारे तीर्थों में श्रेष्ठ कहा गया है। कहते हैं कि यहां किया गया जप, दान, पूजन कई गुण फलदायी होता है।


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