पाप और पुण्य का निर्णय है हमारे ही हाथ

Tuesday, Jan 30, 2018 - 01:06 PM (IST)

पाप और पुण्य मन के भाव हैं। जिस प्रकार देव-कर्म और दानव-कर्म होता है, जिस प्रकार सुख-दुख का अनुभव होता है, उसी प्रकार पाप और पुण्य भी मन के भाव हैं। मोटे रूप से यही मान लिया जाता है कि जो काम खुलेआम किया जाए, वह पुण्य है और जो काम छिपकर किया जाए, वह पाप है। 


श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि सुख और दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश आदि चीजों से ऊपर उठें। ऐसा इसलिए क्योंकि न सुख स्थायी है और न दुख, न लाभ स्थायी है, न हानि। जो आपको अच्छा नहीं लगता, उसे पाप कहते हो, दानव कहते हो। जो आपको अच्छा लगता है, उसे पुण्य, देवता कहते हो। एक व्यक्ति आज आपके लिए प्रिय है तो उसका सब कुछ आपको अच्छा लगता है और अगर वह आपकी बात नहीं मानता है तो आपको बुरा लगता है। 


आपका बेटा, पत्नी या जो कोई भी आपके अनुकूल चलता है तो कहते हो कि वह बड़ा आज्ञाकारी है, लेकिन ज्यों ही वह कभी आपका विरोध करता है तो आग उगलने लगते हो। शास्त्रों में लिखा है कि पत्नी अगर सुंदर हो, सुशील हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, सेवक आपकी सेवा करता हो, घर में धन-वैभव हो तो इसी संसार में सुख मिलता है। इसी संसार में स्वर्ग है। किंतु यदि घर का मालिक दुष्ट और व्यभिचारी हो तो भी पत्नी व पुत्र उसकी आज्ञा का पालन करते हों तो वहां स्वर्ग कैसे हो सकता है? स्वर्ग में तो नैतिक लोग रहते हैं। जब मनुष्य अनैतिक आचरण करे, फिर माता-पिता या जो कोई भी हो, उस आचरण में स्वर्ग देखे, तब तो यह अनैतिकता का प्रचार हुआ।


दरअसल पाप व पुण्य तो आपकी आंखों में हैं। सड़क पर किसी सुंदर महिला को देखकर आप कह सकते हो कि परमात्मा ने कितनी अच्छी रचना की है, मैं इसके लिए आपको धन्यवाद देता हूं। उसी महिला को देखकर किसी के मन में पाप आ जाता है तो वहां उसका कुविचार उसके मन को व्यग्र बना देता है। पाप और पुण्य दोनों आप कर रहे हैं। अब आप ही निर्णय करें कि पाप क्या है और पुण्य क्या?

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