Ramayan: श्री राम की प्रजा ही थी उनका सर्वस्व

Thursday, Jun 24, 2021 - 01:51 PM (IST)

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राम जन्म के ग्यारह दिन बाद नामकरण संस्कार का। राजा दशरथ के आग्रह पर मुनि वशिष्ठ ने चारों भाइयों के अनुपम नाम सोच रखे थे। नाम रखते समय प्रत्येक नाम के गुणों और कार्यों की व्याख्या की गई। ये गुण और कार्य सदैव शाश्वत थे और प्रत्येक देश काल के लिए उपयोगी भी। रामायण की आलौकिकता और लोकप्रियता के अनुसार ही ये गुण थे, जिन्होंने जनमानस में ऐसे राम को भगवान के रूप में बसा दिया जो मानवत्व से देवत्व की ओर गए। श्री राम के अलौकिक चरित्र ने उनका महत्व लोकोत्तर बनाया और उन्हें ऐसा विषय बनाया जो कभी समाप्त नहीं होता। रामकथा मानव जीवन की ऐसी कहानी बन गई जो प्रतिदिन और प्रतिपल हमारे जीवन में चलती रही। उनके वनवास की खबर सुन लक्ष्मण ने रोष में कटु वचन कहे परंतु श्री राम ने उत्तर में इतना ही कहा कि कुटुम्ब को दुखी करके उन्हें राज्य नहीं चाहिए। भ्रातृ संबंधों का होम करके उन्हें विश्व का राज्य भी स्वीकार नहीं था।

एक ओर तो उनकी यह प्रतिज्ञा थी कि ‘‘मैं राज करूंगा तो कर्तव्य के नाते, लोलुपता से नहीं’’ और दूसरी ओर उनकी यह मान्यता थी कि केवल धर्महीन राज्य के लिए मैं महान फलदायक धर्मपालन रूप सुयश को पीछे नहीं धकेल सकता। जीवन अधिक काल तक रहने वाला नहीं है, इसके लिए मैं अधर्मपूर्वक इस तुच्छ पृथ्वी का राज लेना नहीं चाहता। श्री राम को सत्ता या राज्य विस्तार का लोभ होता तो बाली वध के बाद राज्य सुग्रीव को न देकर स्वयं ले सकते थे। इसी प्रकार लंका के पतन के बाद उनका राज्य भी अधिग्रहण कर सकते थे। पर श्री राम ने तो विभीषण को वचन ही नहीं दिया था वरन राज्याभिषेक  भी करवा दिया।

श्री राम की प्रजा ही उनका सर्वस्व थी। वह लोकोत्तर राजा थे, अत: उन्हें लोकोत्तर आत्मविश्वास प्राप्त था। वह कितने बड़े लोकतंत्रवादी थे यह उस प्रकरण से स्पष्ट हो जाता है, जब उन्होंने पुरवासियों की एक महती सभा में प्रजा को कहा :

सुनहु सकल पुरजन ममबानी।
कहउं न कछु ममता उर आनी।
नहिं अनीति नहिं कुछ प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुम्महि सोहाई॥

आगे कहा कि :
‘जो अनीति कछु भाषौ भाई।
तो मोंहि बरजहु भय बिसराई।’

गुरु वशिष्ठ ने संसार का भरण-पोषण करने वाले का नाम भरत रखा और नाम की कार्यात्मक व्याख्या करते हुए कहा ‘बिस्व भरन पोषन कर जोई ताकर नाम भरत अस होई।’ 

राज्य के भरण-पोषण का दायित्व खाद्य और आर्पित मंत्री का होता है। भरत को तो अपने दायित्व के साथ-साथ श्री राम के वनगमन के बाद राम द्वारा दिए गए नीति संदेशों का भी पालन करना था। श्री राम ने वन में भरत से अनेक प्रश्र किए थे जिनमें कुछ थे, ‘‘भरत! तुम कृषि करने वाले और गोपालन से आजीविका चलाने वाले श्रमिकों को प्यार करते हो न?’’

‘‘भरत! यदि धनी और गरीब का विवाद छिड़ा हो और वह राज्य में न्यायालय के निर्णय के लिए आया हो तुम्हारे मंत्री गण धन आदि के लोभ को छोड़कर उस मामले पर विचार करते हैं न?’’

‘‘तुम अर्थ के द्वारा धर्म को अथवा धर्म के द्वारा अर्थ को हानि तो नहीं पहुंचाते?’’

देश की सुरक्षा का भार शत्रुघ्र को सौंपा गया। गुरू वशिष्ठ के अनुसार ‘जाके सुमिरन ते रिपु नासा। नाम शत्रुघ्न बेद प्रकाशा। अर्थात जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध शत्रुघ्न नाम है। नाम और काम तो दिया गुरू वशिष्ठ ने, पर श्री राम ने पुन: वन में भरत से पूछा कि ‘‘सैनिकों को देने के लिए नियत किया हुआ समुचित वेतन और भत्ता तुम समय पर दे देते हो न? देने में विलम्ब तो नहीं करते? 

यदि समय बिताकर भत्ता और वेतन दिए जाते हैं तो सैनिक अपने स्वामी पर अत्यंत कुपित हो जाते हैं और इसके कारण बड़ा भारी अनर्थ हो जाता है।अभी नाम संस्करण प्रक्रिया शेष थी। शेष अवतार लक्ष्मण को शुभ लक्षणों के धाम, श्री राम के प्रिय और सारे जगत के आधार निरुपित कर मुनि वशिष्ठï ने उनका लक्ष्मण जैसा श्रेष्ठ नाम रखा।

लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुर वसिष्ठु तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥

श्री राम तो लक्ष्मण जी को अयोध्या में ही रखना चाहते थे क्योंकि भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं थे और महाराज दशरथ वृद्ध थे। उन्होंने समझाया कि ‘‘इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊं तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जाएगी।’’ 

श्री राम ने यह भी कहा ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।’

राम अर्थात राष्ट्र । राम की प्रजा ही राम का जीवन था। उनके पास लोकोत्तर पराक्रम था, बाहुबल था, फिर भी प्रजा पर अत्यधिक प्रेम था। राम जहां जाएं राष्ट्र भी वहां जाएगा। राम वन में जाएं तो वन ही राष्ट्र । राम वनागमन पर प्रजाजन कहते हैं, ‘राम हमारे क्या नहीं? पिता पुत्र सब ही तो हैं।’

‘न हि तद भविता राष्ट्र यत्र रामो भूपति:
तद् वनं भविता राष्ट्र यत्र रामो निवत्स्यति॥’

राम अर्थात राष्ट्र का पर्यायवाची स्वरूप, विशेषकर राष्ट्र की अखंडता और भावनात्मक एकता का सर्वोत्तम फल उस समय देखने को मिलता है जब राम रामेश्वर की स्थापना करते हुए उत्तर-दक्षिण की अक्षुण्ण अखंडता को रामेश्वर के दर्शन करने और हिमालय से निकली गंगा के जल को रामेश्वर पर चढ़ाने से जोड़ते हैं। राम स्वयं एक ओर समुद्र के समान गंभीर थे तो दूसरी ओर हिमालय के समान दृढ़ धैर्यवान थे। राम हिमालय से दक्षिण के गंभीर समुद्र तक राष्ट्रीय एकता के स्वरूप थे। श्री राम की राजनीति और अर्थनीति में ऊंच नीच का भेदभाव नहीं था जो हीन दृष्टि् से देखे जाते थे। राम ने उन्हें अपनाकर उनका सामाजिक अभिशाप धो दिया। पैदल जनसंपर्क बढ़ाते हुए वह बिना किसी भेदभाव के सबसे मिलते और झोंपडिय़ों तक में आतिथ्य ग्रहण करते हुए जंगलों में विचरते रहे। लंका विजय के बाद शृंगवेरपुर में निषाद राज को साथ ले लिया और राज्याभिषेक  के बाद उसे भी ’तुम मम सखा भरत सम भ्राता’ कह कर वस्त्र आभूषण भेंट दिए। श्री राम के कार्य, व्यवहार, चरित्र और अधिकृत व्यक्तित्व से प्रभावित होकर प्रजा का प्रत्येक वर्ग उन्हें प्राणों से अधिक प्यार करता था। यही कारण है कि भरत जब उन्हें लौटाने के लिए गए तो उनके साथ कुछ मंत्री या मुनि गण ही नहीं गए, बल्कि अनेक पिछड़ी कहलाने वाली जातियों व श्रमजीवियों के दल भी सम्मिलित थे। एक अन्य प्रसंग पर सबसे अधिक प्रिय कौन? की व्याख्या करते हुए उन्होंने धर्म का अनुसरण करने वाले ज्ञानी और विज्ञानी की चर्चा करते हुए सबसे प्रिय बिना ऊंच-नीच, जात-पात के भेदभाव के उस सेवक को बनाया जिसे राम को छोड़कर अन्य कोई सहारा नहीं था। —पवन कुमार वर्मा

Jyoti

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