Dharmik Concept: मनुष्य जो ‘बोता’ है वही ‘काटता’ है

Tuesday, Dec 14, 2021 - 06:25 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
हम संसार में अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोगने तथा जन्म-मरण के चक्र से छूटने व दुखों से मुक्त होने के लिए आते हैं। मनुष्य जो बोता है वही काटता है। यदि गेहूं बोया है तो गेहूं ही उत्पन्न होता है। हमने यदि शुभ कर्म किए हैं तो फल भी शुभ होगा और अशुभ कर्मों का फल अशुभ ही होगा। मनुष्य का शरीर अनेक ज्ञान व विज्ञान का समावेश करके परमात्मा ने बनाया है। मनुष्य अपने जैसा व अन्य प्राणियों के शरीर जैसी रचना नहीं कर सकता। जो विद्वान सत्य आध्यात्मिक ज्ञान से युक्त होते हैं, वे ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व, स्वरूप तथा इनके गुण, कर्म तथा स्वभाव को जानते हैं।

जो भौतिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करते अथवा अल्पशिक्षित होते हैं वे बिना स्वाध्याय, विद्वानों के उपदेशों के श्रवण व सत्संग के ईश्वर व जीवात्मा को यथार्थ रूप में नहीं जानते। मत-मतांतरों के ग्रंथ अविद्या से युक्त होने के कारण उनमें ईश्वर का सत्य ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। इस कारण उनके अनुयायी ईश्वर व जीवात्मा विषयक सत्य ज्ञान न होने के कारण ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकते। ईश्वर की प्राप्ति के लिए मनुष्य को वैदिक साहित्य का अध्ययन करना होता है जिसमें वेद व इसके भाष्य सहित उपनिषद्, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय तथा ऋग्वेद भाष्य भूमिका आदि ग्रंथों का सर्वोपरि स्थान है।

इन ग्रंथों के अध्ययन से ईश्वर को जाना जाता है और योग साधना के द्वारा मनुष्य ध्यान, समाधि अवस्था को प्राप्त कर ईश्वर का निभ्र्रान्त ज्ञान, प्रत्यक्ष व साक्षात्कार करता है। आर्य समाज के दूसरे नियम में ऋषि दयानंद ने ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उनके गुण, कर्म  व स्वभावों का वर्णन किया है। इस नियम को कंठ या स्मरण कर इसका ङ्क्षचतन करते रहने पर मनुष्य ईश्वर के सत्यस्वरूप को जान लेता है।

ओम और गायत्री मंत्र का जप
ईश्वर का मुख्य व निज नाम ओम है। ओम के जप तथा गायत्री मंत्र के अर्थ सहित जप से भी मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर अपने जीवन को दुखों से मुक्त एवं सुखों से युक्त कर सकते हैं। मनुष्य का जन्म ईश्वर व जीवात्मा को जान कर उपासना करने सहित दुखों को दूर करने तथा सुखों की प्राप्ति के लिए ही हुआ है। इसी आवश्यकता की पूर्ति व मनुष्यों की ईश्वर के स्वरूप व उपासना के महत्व सहित उपासना की विधि का ज्ञान कराने के लिए हमारे वैदिक ऋषियों ने अनेक शास्त्रों व ग्रंथों की रचना की।

आत्मा अमर है
हमारी आत्मा ऐसी है जिसको अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकती और शस्त्र से यह काटा नहीं जा सकता, यह सदा से है और सदा रहेगा। आत्मा जन्म-मरण धर्मा होने से जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसी है और इसका जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म होता रहता है।  अर्थात हमारी आत्मा सदैव सुख चाहती है। सुख का कारण शुभ कर्म होते हैं। हमें जो दुखों की प्राप्ति होती है उसका कारण हमारे अज्ञान युक्त अशुभ कर्म होते हैं। वेदों का अध्ययन करने पर हमें सत्यासत्य एवं कर्ता व्याकर्तव्योंका ज्ञान होता है। सत्य के ज्ञान और उसके अनुरूप कर्तव्यों का पालन कर हम विद्या की वृद्धि कर जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। इतिहास में अनेक ऋषि, महर्षि, योगी और विद्वान हुए हैं जिन्होंने वेदों के अध्ययन-अध्यापन में ही अपना जीवन व्यतीत किया है और जीवन भर संतोष का अनुभव करते हुए अज्ञान व अकत्र्तव्यों के आचरण से स्वयं को दूर रखा।

वह सब देश, समाज व प्राणीमात्र के हित के कार्यों को करते हुए लम्बी आयु को भोग कर ईश्वर को प्राप्त करते रहे व उसके ज्ञान व योगाभ्यास से समाधि को सिद्ध कर ईश्वरानंद के अनुभव से उन्होंने अपनी जीवन यात्रा को इसके ध्येय तक पहुंचाया और सफलता दिलाई। मनुष्य संसार में उत्पन्न हुआ है। मनुष्य का शरीर नाशवान है। जन्म के बाद लगभग 100 वर्षों के अंदर मनुष्य की मृत्यु होती है। पाप करने से मनुष्य को क्षणिक सुख मिल सकता है परन्तु उसका परिणाम दुखदायी ही होता है। 100 वर्ष की आयु में आधे से अधिक समय तो बचपन, बुढ़ापे, रात्रि शयन, खेलकूद, भोजन, भ्रमण एवं जीवन के अनेक कार्यों में लग जाते हैं। सुख भोगने का समय तो बहुत ही कम होता है। सुख धर्म के परोपकार एवं दान आदि कामों से भी मिलता ही है। ईश्वरोपासना, यज्ञ अग्रिहोत्र व वृद्धों की सेवा से भी सुख, आयु वृद्धि आदि अनेक लाभ होते हैं। अत: मनुष्य को विद्वानों द्वारा अनुमोदित व अनुभूत सत्य व धर्म का आचरण ही करना चाहिए। -ले. मनमोहन कुमार आर्य

Jyoti

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