Chhatrapati Shivaji Maharaj Punyatithi: छत्रपति शिवाजी महाराज ने ढलती हिन्दू और मराठा संस्कृति में फूंकी नई जान

Thursday, Mar 28, 2024 - 07:09 AM (IST)

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Chhatrapati Shivaji Maharaj Punyatithi 2024: जब भी वीर पराक्रमी राजाओं की बात होती है तो हमारी जुबां पर पहला नाम छत्रपति शिवाजी महाराज का ही आता है। उन्होंने मुगलों का सामना करने की ताकत दिखाई और ढलती हिन्दू और मराठा संस्कृति में नई जान फूंकी। शिवाजी का जन्म 19 फरवरी, 1630 को शक्तिशाली सामंत राजा शाहजीराजे भोंसले के घर पुणे के जुत्रार गांव के पास शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। इनकी माता जीजाबाई जाधवराव कुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली धार्मिक विचारों की महिला थीं। इनके बड़े भाई का नाम स भाजीराजे था, जो अधिकतर समय अपने पिता के साथ ही रहते थे। इनके दादा मालोजीराजे एक प्रभावशाली जनरल थे।

इनका बचपन इनकी माता के मार्गदर्शन में बीता। जीजाबाई की बदौलत ही शिवाजी को एक वीर, कुशल और पराक्रमी प्रशासक बनने में मदद मिली। माता जीजाबाई से हिन्दू धर्म के महाकाव्य रामायण और महाभारत की कहानियां सुनकर ही शिवाजी महाराज के अंदर मर्यादा, धैर्य और धर्मनिष्ठा जैसे गुणों का अच्छे से विकास हुआ था।

पिता शाहजीराजे भोसले ने पत्नी जीजाबाई और पुत्र शिवाजी महाराज की सुरक्षा और उनकी देखरेख की जिम्मेदारी दादोजी कोंडदेव के मजबूत कंधों पर छोड़ी थी, जिनसे इन्होंने राजनीति एवं युद्ध कला की शिक्षा ली। भारत के वीर सपूत और सच्चे देशप्रेमी शिवाजी महाराज बचपन में ही अपने दोस्तों के साथ ऐसे खेल खेलते थे, जिनसे उनके अंदर युद्ध जीतने की क्षमता का तेजी से विकास हुआ। बचपन में ही वह अपने आयु के बालकों को इकट्ठा कर उनके नेता बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल खेला करते थे। इसके बाद वह वास्तविकता में किलों को जीतने लगे।

इनकी शादी सइबाई निंबालकर के साथ हुई। इतिहास में इनके 8 विवाहों का वर्णन मिलता है। वैवाहिक राजनीति के जरिए इन्होंने सभी मराठा सरदारों को एक छत्र के नीचे लाने में सफलता प्राप्त की। 1640 और 1641 के बीच जब महाराष्ट्र के बीजापुर पर विदेशी शासक हमला कर रहे थे, इसी दौरान महान और वीर शासक शिवाजी महाराज ने इनका मुकाबला करने का फैसला किया और बेहद चतुराई के साथ रणनीति बनाई।

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अपनी बुद्धिमत्ता और चतुराई से शिवाजी महाराज ने बीजापुर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और फिर रोहिदेश्वर, तोरणा और उसके बाद राजगढ़ पर अपना अधिकार जमाया। 1647 तक वह चाकन से लेकर नीरा तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे।

बीजापुर का सुल्तान आदिलशाह इनकी शक्तियों से बौखला गया। उसने 1659 में अपने सेनापति अफजल खां को 10 हजार सैनिकों के साथ आक्रमण करने के लिए भेज दिया। उसने शिवाजी को कूटनीति से जान से मारने की कोशिश की, लेकिन शिवाजी ने अफजल खां की साजिश को पहले ही भाप लिया और जैसे ही 10 नवंबर, 1659 को संधि स्थल पर अफजल खां ने शिवाजी के गले पर अपना खंजर घोंपना चाहा, उसी समय शिवाजी ने चतुराई से अफजल खां को मार डाला, जिसके बाद आदिलशाह की सेनाएं दुम दबाकर वहां से भाग खड़ी हुईं।

इसके बाद शिवाजी की सेना ने सुल्तान आदिलशाह को प्रतापगढ़ में हराया। आदिलशाह द्वारा मुगल शासक से मदद मांगने पर औरंगजेब ने उस वक्त दक्षिण भारत में नियुक्त अपने मामा शाइस्ता खान को शिवाजी के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए भेजा। वह डेढ़ लाख सैनिकों के साथ पुणे पहुंचा और जमकर लूटपाट की। शाइस्ता खान की सेना ने पुणे पर हमला कर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और छत्रपति शिवाजी महाराज के लाल महल पर भी अपना कब्जा जमा लिया।

जब शिवाजी महाराज को इसकी खबर लगी तो वह छापामार युद्ध रणनीति के तहत करीब 400 सैनिकों के साथ बाराती बन कर पुणे गए। शाइस्ता खान की सेना लाल महल में जब आराम कर रही थी, तभी शिवाजी और उनकी सेना ने हमला कर दिया। इस लड़ाई में शाइस्ता खान किसी तरह अपनी जान बचाकर भाग निकला लेकिन वीर शिवाजी महाराज के साथ लड़ाई में शाइस्ता को अपनी 4 उंगलिया खोनी पड़ीं और उसके सैंकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया।

औरंगजेब से समझौते के बाद छत्रपति शिवाजी महाराज 9 मई, 1666 को अपने ज्येष्ठ पुत्र संभाजी और कुछ सैनिकों के साथ मुगल दरबार में पधारे। औरंगजेब ने उन्हें बंदी बना लिया लेकिन कुशाग्र बुद्धि का इस्तेमाल कर शिवाजी महाराज चतुराई के साथ 13 अगस्त, 1666 में अपने बेटे के साथ फलों की टोकरी में छिपकर आगरा के किले से भाग निकले और 22 सितंबर, 1666 को रायगढ़ पहुंच गए। 6 जून, 1674 को रायगढ़ में वीर छत्रपति शिवाजी महाराज का हिन्दू पर परा और रीति-रिवाज के साथ राज्याभिषेक हुआ। राज्याभिषेक के 12 दिन के बाद उनकी माता जीजाबाई का स्वर्गवास हो गया।

अपने जीवन के आखिरी दिनों में वह अपने राज्य को लेकर काफी चिंतित रहने लगे थे, जिसकी वजह से उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया और लगातार 3 सप्ताह तक तेज बुखार में रहे, जिसके बाद 3 अप्रैल, 1680 को उनका निधन हो गया।

Niyati Bhandari

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