निष्काम होकर संसार की सेवा करने वाले लोग ईश्वर को होते हैं बेहद प्रिय

Wednesday, Jan 17, 2018 - 10:29 AM (IST)

एक राजा बहुत बड़ा प्रजापालक था, हमेशा प्रजा के हित में प्रयत्नशील रहता था। वह इतना कर्मठ था कि अपना सुख, ऐशो-आराम सब छोड़कर सारा समय जन-कल्याण में ही लगाता। यहां तक कि मोक्ष का साधन अर्थात भगवत-भजन, वह उसके लिए भी समय नहीं निकाल पाता।


एक सुबह राजा वन की तरफ भ्रमण करने के लिए जा रहा था कि उसे एक देव के दर्शन हुए। राजा ने देव को प्रणाम करते हुए उनका अभिनंदन किया और देव के हाथों में एक लंबी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा- “महाराज, आपके हाथ में यह क्या है?”


देव बोले- “राजन! यह हमारा बहीखाता है, जिसमें सभी भजन करने वालों के नाम हैं।”
राजा ने निराशायुक्त भाव से कहा- “कृपया देखिए तो इस किताब में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?”


देव महाराज किताब का एक-एक पृष्ठ उलटने लगे, परंतु राजा का नाम कहीं भी नजर नहीं आया।


देव को चिंतित देखकर राजा ने कहा- “महाराज! आप चिंतित ना हों, आपके ढूंढने में कोई भी कमी नहीं है। वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता, और इसलिए ही मेरा नाम यहां नहीं है।”


उस दिन राजा के मन में आत्म-ग्लानि-सी उत्पन्न हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे नजर-अंदाज कर दिया और पुनः परोपकार की भावना लिए दूसरों की सेवा करने में लग गए।


कुछ दिन बाद राजा फिर सुबह वन की तरफ टहलने के लिए निकले तो उन्हें वही देव महाराज के दर्शन हुए, इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी। इस पुस्तक के रंग और आकार में बहुत भेद था, यह पहली वाली से काफी छोटी भी थी।


राजा ने फिर उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा- “महाराज! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है?”


देव ने कहा- “राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों का नाम लिखा है जो ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय हैं।”


राजा ने कहा- “कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग? निश्चित ही वे दिन रात भगवत-भजन में लीन रहते होंगे। क्या इस पुस्तक में कोई मेरे राज्य का भी नागरिक है?”


देव महाराज ने बहीखाता खोला, और ये क्या, पहले पन्ने पर पहला नाम राजा का ही था।


राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- “महाराज, मेरा नाम इसमें कैसे लिखा हुआ है, मैं तो मंदिर भी कभी-कभार ही जाता हूं।


देव ने कहा- “राजन! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जो लोग निष्काम होकर संसार की सेवा करते हैं, जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं। जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानो की सेवा-सहायता में अपना योगदान देते हैं, उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है। हे राजन! तुम मत पछताओ कि तुम पूजा-पाठ नहीं करता, लोगों की सेवा करना भी भगवान की पूजा करना है। परोपकार और निःस्वार्थ लोक सेवा किसी भी उपासना से बढ़कर है। 


देव ने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा-
“कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छनं समाः
एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कर्म लिप्यते नरे।”


अर्थात ‘कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करो तो कर्म बंधन में लिप्त हो जाओगे।’ राजन! भगवान दीन दयालु हैं। उन्हें खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है। सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो, दीन-दुखियों का हित-साधन करो। अनाथ, विधवा, किसान व निर्धन आज अत्याचारियों से सताए जाते हैं इनकी यथाशक्ति से सहायता और सेवा करो और यही परम भक्ति है।”


राजा को आज देव के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान मिल चुका था और अब राजा भी समझ गया कि परोपकार से बड़ा कुछ भी नहीं और जो परोपकार करते हैं वही भगवान के सबसे प्रिय होते हैं।


मित्रों, जो व्यक्ति निस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने के लिए आगे आते हैं, परमात्मा हर समय उनके कल्याण के लिए यत्न करता है। हमारे पूर्वजों ने कहा भी है- 


“परोपकाराय पुण्याय भवति” अर्थात दूसरों के लिए जीना, दूसरों की सेवा को ही पूजा समझकर कर्म करना, परोपकार के लिए अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पुण्य है और जब आप भी ऐसा करेंगे तो स्वतः ही आप वह ईश्वर के प्रिय भक्तों में शामिल हो जाएंगे। 

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