शहीदों की धरती है चमकौर साहिब, यहां हुई थी दो महान घटनाएं

Tuesday, Dec 22, 2020 - 03:30 PM (IST)

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श्री चमकौर साहिब के बारे में एक मुस्लिम शायर अल्ला यार खां जोगी जी का कहना है कि, ‘‘चमक है मेहर की चमकौर तेरे जर्रों में, यहीं से बन के सितारे गए आसमां के लिए।’’

चमकौर साहिब को शहीदों की धरती कहा जाता है। यहां पर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के बड़े साहिबजादों बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह के अलावा तीन प्यारों भाई मोहकम सिंह, भाई हिम्मत सिंह व भाई साहिब सिंह व 40 सिंहों ने मुगल फौज के साथ लोहा लेते हुए शहादत दी थी। 6 व 7 पौष की रात को 1761 विक्रमी (5 व 6 दिसम्बर 1704 ई.) में गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब का किला छोड़ दिया था। जैसे ही गुरु जी का परिवार तथा सिंह आनंदपुर साहिब से थोड़ा बाहर आए तो पीछे से मुगलों तथा राजाओं ने अपनी शपथों को तोड़ते हुए धोखे से उन पर हमला कर दिया। यह लड़ाई आनंदपुर साहिब से शुरू होकर सरसा नदी तक होती रही। सरसा नदी में पानी उफान पर था। सर्दी का मौसम था। ऐसे में गुरु जी का परिवार बिछुड़ गया। माता गुजरी तथा छोटे साहिबजादे गुरु जी के रसोइए गंगू के साथ सहेड़ी आ गए, माता सुंदरी जी व माता साहिब कौर जी भाई मनी सिंह के साथ दिल्ली चले गए और गुरु जी अपने दो बड़े साहिबजादों, पांच प्यारों व मुट्ठी भर सिंहों के साथ चमकौर साहिब की एक कच्ची गढ़ी में आ रुके।

उधर मुगल सेना तथा पहाड़ी हिन्दू राजाओं की फौज, जिनकी संख्या 10 लाख के करीब बताई जाती है, इकट्ठी होकर चमकौर साहिब में आ पहुंची। गुरु जी को भी इसकी सूचना मिल गई। गुरु जी के पास उस समय 40 सिंह ही थे। गुरु जी ने सभी को एक जगह एकत्र कर उन्हें निर्देश दिया कि सभी सिंह अलग-अलग जत्थे बना कर लड़ाई करेंगे और गढ़ी में भी जगह-जगह मोर्चे लगा दिए। 

गुरु जी से आदेश पाकर 5-5 सिंहों का जत्था गढ़ी से रवाना होता और 10 लाख फौज के साथ लड़ाई करता हुआ शहीद हो जाता। गुरु जी ने अपने हाथों से अपने बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह को तैयार किया। गुरु जी के पांच प्यारों में से एक भाई मोहकम सिंह जी बाबा अजीत सिंह को साथ लेकर गढ़ी से बाहर निकले और दुश्मन की फौज पर हमला कर दिया। इन दोनों ने दुश्मन के अनेक सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और जिधर भी जाते उधर भगदड़ मच जाती। एक बार तो ऐसा समय भी आया कि दुश्मन की फौज साहिबजादा बाबा अजीत सिंह व भाई मोहकम सिंह के आगे-आगे भागने लगी। वजीर खां, जोकि मुगलों का जरनैल था, ने अपने फौजियों को ताना देते हुए कहा कि एक छोटे से बच्चे से डर कर भाग रहे हो, तुम्हें शर्म नहीं आती? यह सुन कर सभी ने साहिबजादा अजीत सिंह को घेर लिया। बाबा जी ने घेरे में भी हजारों दुश्मनों को मौत के घाट उतारते हुए शहीदी जाम पी लिया। 

बड़े भाई को शहीद होते देख कर छोटे साहिबजादे बाबा जुझार सिंह जी ने भी गुरु जी से युद्ध करने की अनुमति मांगी। गुरु जी ने उन्हें लड़ाई के लिए स्वयं तैयार किया और अपने हाथों से युद्ध में भेजा। बाबा जुझार सिंह ने तीरों व तलवार के साथ खूब जंग लड़ी। हालांकि उनकी आयु बहुत छोटी थी। परंतु फिर भी उन्होंने हजारों दुश्मनों को मार दिया और खुद भी शहीद हो गए। इस लड़ाई में गुरु जी के पांच प्यारों में से तीन प्यारे भाई मोहकम सिंह, भाई हिम्मत सिंह व भाई साहिब सिंह भी शहीद हुए। सवा लाख से एक लड़ाऊं वाली बात गुरु जी ने इस लड़ाई में सत्य कर दिखाई। आजकल इस जगह पर शहीदों की याद में शानदार गुरुद्वारे बने हुए हैं। जहां पर शहीदों का अंतिम संस्कार हुआ वहां गुरुद्वारा श्री कत्ल गढ़ साहिब सुशोभित है।

साका सरहिंद 
श्री फतेहगढ़ साहिब ऐसी पवित्र धरती है जिसे सिखों का करबला कहा जाता है। यहां औरंगजेब केराज में सरहिंद के सूबा वजीर खान ने श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबज़ादों बाबा जोरावर सिंह, बाबा फतेह सिंह तथा माता गुजरी जी को बिना किसी कारण शहीद करवा दिया था। सरसा नदी पार करते समय गुरु जी का परिवार बिखर गया। गुरु जी का रसोइया गंगू माता गुजरी व छोटे साहिबजादों को अपने साथ गांव सहेड़ी में ले आया। उसने लालच में आकर माता जी व साहिबजादों को धोखे से गिरफ्तार करवा दिया। माता जी व साहिबजादों को गिरफ्तार करके सरहिंद सूबा वजीर खान के पास लाया गया। यहां पर उन्हें ठंडे बुर्ज में कैद करके रखा गया। साहिबजादों को मुस्लिम धर्म धारण करने को कहा गया तथा और भी कई तरह के लालच दिए गए, परंतु साहिबजादों ने अपने धर्म को त्यागना कबूल नहीं किया। 2 दिन उन्हें कहचरी में पेश किया जाता रहा, परंतु साहिबजादे नहीं माने।

अंत में वजीर खान ने साहिबजादों को जीवित ही दीवारों में चिनवाकर शहीद करने का हुक्म जारी करवा दिया। साहिबजादों को वजीर खान का आदेश पाकर 13 पौष के दिन दीवारों में चिनवाया गया और यह काम समाना के जल्लादों शाशल बेग व बाशल बेग ने किया। जब साहिबजादे दीवारों में बेहोश हो गए तो उन्हें बाहर निकाल कर शहीद कर दिया। जब माता गुजरी जी को साहिबज़ादों की शहीदी के बारे में पता चला तो वह भी अकाल पुरख के चरणों में जा बिराजे। जितना समय माता जी व साहिबजादे वजीर खान की कैद में रहे, उस समय के दौरान अपनी जान खतरे में डालकर मोती मेहरा जी उन्हें दूध पिलाते रहे। शहीदी के बाद दीवान टोडरमल ने माता जी तथा साहिबजादों के पवित्र शरीर के अंतिम संस्कार की अनुमति मांगी तो उन्हें कहा गया कि जितनी जगह संस्कार के लिए चाहिए उस पर स्वर्ण मुद्राएं खड़ी करके रखी जाएं। दीवान जी ने अपनी सारी दौलत से यह जगह खरीदी और अंतिम संस्कार किया। बाद में बाबा बंदा सिंह बहादुर ने 12 मई, 1710 को सरहिंद पर हमला किया और इसकी ईंट से ईंट बजाकर साहिबजादों की शहीदी का बदला लेकर खालसा का राज कायम किया। 

-गुरप्रीत सिंह नियामियां-

Jyoti

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