आज जन्मदिन पर विशेष: खूब लड़ी मर्दानी झांसी वाली रानी

Thursday, Nov 16, 2017 - 02:13 PM (IST)

16 नवम्बर 1835 को बनारस में मोरोपंत तांबे व भगीरथी बाई की पुत्री के रूप में लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम मणिक्रर्णिका था, पर प्यार से लोग उन्हें मनु कह कर पुकारते थे। काशी में रानी लक्ष्मीबाई के जन्म पर प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा को याद करना लाजिमी है। 1824 में कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा ने अंग्रेजों को मार-भगाने के लिए ‘फिरंगियो भारत छोड़ो’ की ध्वनि गुंजित की थी और रणचंडी का रूप धर कर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी।


यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के 6 साल बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ बिठूर आ गईं। वस्तुत: 1818 में तृतीय मराठा युद्ध के अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय के पश्चात उनको 8 लाख रुपए की वार्षिक पैंशन मुकर्रर कर बिठूर भेज दिया गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ उनके सरदार मोरोपंत तांबे भी अपनी पुत्री लक्ष्मीबाई के साथ बिठूर आ गए। लक्ष्मीबाई  का बचपन नाना साहब के साथ कानपुर में बिठूर में ही बीता। लक्ष्मीबाई की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई।


1853 में अपने पति गंगाधर राव की मौत के पश्चात रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी का शासन संभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक  मानने से इंकार कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को पांच हजार रुपए मासिक पैंशन लेने को कहा पर महारानी ने इसे लेने से मना कर दिया। 


पर बाद में उन्होंने इसे लेना स्वीकार किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने यह शर्त जोड़ दी कि उन्हें अपने स्वर्गीय पति के कर्ज को भी इसी पैंशन से अदा करना पड़ेगा, अन्यथा यह पैंशन नहीं मिलेगी। इतना सुनते ही महारानी का स्वाभिमान ललकार उठा और अंग्रेजी हुकूमत को उन्होंने संदेश भिजवाया कि जब मेरे पति की उत्तराधिकारी न मुझे माना गया और न ही मेरे पुत्र को तो फिर इस कर्ज के उत्तराधिकारी हम कैसे हो सकते हैं? उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को स्पष्टतया बता दिया कि कर्ज अदा करने की बारी अब अंग्रेजों की है न कि भारतीयों की।


इसके बाद घुड़सवारी और हथियार चलाने में माहिर रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देने की तैयारी आरंभ कर दी और उद्घोषणा की कि, ‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।’’


रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित सैनिक दल में तमाम महिलाएं शामिल थीं। उन्होंने महिलाओं की एक अलग ही टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ नाम से बनाई थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था।


झलकारीबाई ने कसम उठाई थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं शृंगार करूंगी और न ही सिंदूर लगाऊंगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारी बाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। चूंकि उनका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलता-जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और स्वयं घायल सिंहनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई।


रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे को कमर में बांधे घोड़े पर सवार किले से बाहर निकल गई और कालपी पहुंचीं, जहां तांत्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।


अंतत: 18 जून 1858 को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की इस अद्भुत वीरांगना ने अंतिम सांस ली पर अंग्रेजों को अपने पराक्रम का लोहा मनवा दिया। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किंवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुए कल को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। बुंदेलखंड की वादियों में आज भी दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है:


खूब लड़ी मरदानी, अरे झांसी वारी रानी/ पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झांसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/ सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/ छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढेहूं मिले नहीं पानी/ अरे झांसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।।


माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर ‘झांसी की रानी’ नाम अपनी कविता में सुभद्रा कुमारी चौहान ने 1857 की उनकी वीरता का बखान किया है। चमक उठी सन् सत्तावन में/ वह तलवार पुरानी थी/ बुंदेलों हरबोलों के मुंह/ हमने सुनी कहानी थी/ खूब लड़ी मरदानी वह तो/ झांसी वाली रानी थी।

(‘जनज्ञान’ से साभार)

Advertising