भीष्म द्वादशी: पितामह ने शरशैया पर पड़े हुए बोली थी ये बात, आप भी उठाएं लाभ

Thursday, Feb 06, 2020 - 07:14 AM (IST)

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भीष्म पितामह महाराज शांतनु के ज्येष्ठ पुत्र थे। वह पतित पावनी गंगा के गर्भ से आठवें वसु देवता के रूप में उत्पन्न हुए थे। उनका नाम देवव्रत था। भीषण (कठिन) प्रतिज्ञा का पालन करने के कारण उनका नाम ‘भीष्म’ पड़ गया। 

महाभारत के अंत में जब भीष्म पितामह शरशैया पर पड़े हुए थे, तब उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर को अनेक प्रकार के दृष्टांतों तथा आख्यानों द्वारा राज धर्म, आपधर्म तथा मोक्ष धर्म का उपदेश दिया था। तदनंतर भगवान शंकर की महिमा को जानने की इच्छा रखने वाले धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से कहा, ‘‘पितामह! कृपा करके अब आप जगतपति महेश्वर के महात्म्य के विषय में उपदेश कीजिए।’’

भीष्म पितामह बोले, ‘‘राजन! भगवान शंकर देवों के भी देव साक्षात ईश्वर हैं, वे सर्वत्र व्याप्त हैं परन्तु सबके आत्मस्वरूप होने के कारण सर्वत्र दृष्टिगोचर नहीं होते। ऐसे अव्यक्त, नित्य और निरंकार भगवान महेश्वर के गुणों को वर्णन करने की शक्ति मुझमें नहीं है। जो ब्रह्मा, विष्णु और इंद्र के भी स्रष्टा (उपादान कारण रूप) और प्रभु (नियंता) हैं, ब्रह्मा आदि देवताओं से लेकर पिशाच तक जिनकी उपासना करते हैं, प्रकृति तथा प्रकृति के भोक्ता पुरुष से भी जो परे हैं, विलक्षण हैं, योग जानने वाले तत्ववेत्ता ऋषि-मुनि जिनका चिंतन करते रहते हैं, जो अक्षर (अपरिणामी) तथा परब्रह्म हैं, जो अनिर्वचनीय हैं, अर्थात जो न सत हैं न असत हैं, जो प्रकृति और पुरुष से परे हैं ऐसे प्रभु परमेश्वर महादेव के गुणों का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है? अत: वत्स! शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान नारायण के अतिरिक्त मुझ सरीखा पुरुष उन परमेश्वर शंकर के गुणों को किस प्रकार जान सकता है? क्योंकि भगवान नारायण सर्वज्ञ हैं, व्यापक हैं, दुर्जय हैं और वह दिव्य दृष्टि से महादेव जी का दर्शन किया करते हैं। राजन! जब बद्रिका आश्रम में श्रीकृष्ण ने भगवान शंकर को प्रसन्न किया था तब शिव भक्ति के प्रभाव से पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने समस्त संसार को व्याप्त कर लिया और सब लोकों के चाहने योग्य भोग्य वस्तु से भी अधिक प्रिय (अंतर्यामी) पद पाया।’’

इतना कह कर भीष्म पितामह ने शंकर की महिमा जानने वाले श्रीकृष्ण से प्रार्थना की- ‘हे देव! हे विष्णो! धर्मराज के प्रश्रों का आप ही उत्तर दीजिए क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं।’  

तब श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘हे भीष्म पितामह! जिन भगवान शंकर के गुणों को ब्रह्मादि देवता भी नहीं जान सकते, उनके गुणों को भला मनुष्य कैसे जान सकता है? फिर भी महात्मा शंकर के गुणों को किसी प्रकार यथाशक्ति मैं कहूंगा।’’ 

ऐसा कह कर पवित्रता से आचमन करके भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें महर्षि तंडिप्रोत शिवमहिमा तथा शिवसहस्रनाम का श्रवण कराया। ॐ नम: शिवाय

जरत सकल सुर बृंद विषम गरल जेहिं पान किय। तेहि न भजसि मन मंद को कृपालु संकर सरिस॥
अर्थात
जिस भयंकर विष (की ज्वाला) से सारे देवतागण जल रहे थे, उनको जिन्होंने स्वयं पान कर लिया, रे मंद मन! तू उन श्री शिवजी को क्यों नहीं भजता? उनके समान कृपालु (और) कौन है?

Niyati Bhandari

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