दिव्य ज्ञान में स्थित होने पर ही दिखते हैं ये लक्षण

Monday, Nov 28, 2016 - 02:59 PM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार: स्वामी प्रभुपाद अध्याय 4 (दिव्यज्ञान)

 

दिव्य ज्ञान से परिपूर्ण, गीता व्याख्या  अध्याय (4)

 

यद्दच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।। 22।।


शब्दार्थ : यद्दच्छा—स्वत:; लाभ—लाभ से; संतुष्ट:—संतुष्ट; द्वन्द्व—द्वैत से; अतीत:—परे; विमत्सर:—ईष्र्यारहित; सम:—स्थिरचित्त; सिद्धौ—सफलता में; असिद्धौ—असफलता में; च—भी; कृत्वा—करके; अपि—यद्यपि; न—कभी नहीं; निबध्यते—प्रभावित होता है, बंधता है।


अनुवाद : जो स्वत: होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वैत भाव से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बंधता नहीं।


तात्पर्य: कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने शरीर-निर्वाह के लिए भी अधिक प्रयास नहीं करता। वह अपने आप होने वाले लाभों से संतुष्ट रहता है। वह न तो मांगता है, न उधार लेता है, किंतु यथासामर्थ्य वह सच्चाई से कर्म करता है और अपने श्रम से जो प्राप्त हो पाता है, उसी से संतुष्ट रहता है। अत: वह अपनी जीविका के विषय में स्वतंत्र रहता है। 


वह अन्य किसी की सेवा करके कृष्णभावनामृत संबंधी अपनी सेवा में व्यवधान नहीं आने देता किंतु भगवान् की सेवा के लिए वह संसार की द्वैतता से विचलित हुए बिना कोई भी कर्म कर सकता है। संसार की यह द्वैतता गर्मी-सर्दी अथवा सुख-दुख के रूप में अनुभव की जाती है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति द्वैतता से परे रहता है, क्योंकि कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वह कोई भी कर्म करने में झिझकता नहीं। अत: वह सफलता तथा असफलता दोनों में ही समभाव रहता है। ये लक्षण तभी दिखते हैं जब कोई दिव्यज्ञान में पूर्णत: स्थित हो। 

 (क्रमश:)

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