Intresting Story: बापू और ‘बा’ की कुछ यादें, जो देंगी थोड़ी खुशी-थोड़ा गम
Wednesday, Dec 02, 2020 - 09:56 AM (IST)
बापू के जन्म दिन पर ‘बा’ को भेंट
बात सेवाग्राम आश्रम की है। सन 1941 में गांधी जयंती का दिन था। महिला आश्रम, वर्धा की बहनें अपनी सामूहिक कताई के सूत से बापू के लिए दो चादरें और ‘बा’ के लिए एक साड़ी बुन कर ले गईं। साड़ी को देखकर बापू ठहाका मार कर हंसे और बोले, ‘‘यह क्या? तुम लोग क्या मुझे साड़ी पहनाओगी?’’
‘‘यह साड़ी तो ‘बा’ के लिए है।’’ एक बहन ने उत्तर दिया।
‘‘अगर यह ‘बा’ के लिए है तो मुझे क्यों दी गई है?’’
‘‘आपके जन्म दिन पर ‘बा’ के लिए भेंट है।’’
‘‘अरे जन्म दिन मेरा और भेंट ‘बा’ के लिए।’’
इतना कह कर बापू कुछ गंभीर हो गए। फिर बोले, ‘‘तुम लोग यह अच्छा नहीं कर रही हो? ‘बा’ को तुम मेरे अंतर्गत समझती हो, उनका अपना पृथक व्यक्तित्व है।’’
आगे समझाते हुए बापू ने कहा, ‘‘तुम्हें क्या पता तुम जिसे ‘महात्मा’ कहती हो उसके बनने में ‘बा’ का कितना बड़ा हाथ है। उसको कुछ भेंट देना है तो उसके जन्म दिन पर उसे दो लेकिन उसका जन्मदिन कौन सा है? यह तो मुझे भी नहीं मालूम, उसके भाई को पत्र लिख कर मालूम कर लो। अगर पता न चले तो वर्ष के किसी एक दिन को उसका जन्म दिन मान लो, उस दिन उसको भेंट कर दो।’’
‘बा’ के लिए कमरा
शहर छोड़कर गांव में रहने की बापू को इतनी जल्दी पड़ी कि शेगांव में आदिम निवास बना भी न था और बापू वहां रहने के लिए पहुंच गए। किसी तरह झोंपड़ बना। उसी में बापू ‘बा’ तथा कई साथी रहने लगे। मेहमान आता तो वह भी उसी में ठहराया जाता।
पुरुषों के बीच में किसी स्त्री को रहने में कितनी परेशानी होती है, इसका अनुभव तो स्त्री ही कर सकती है। एक दिन ‘बा’ ने बापू से कहा, ‘‘हमको यहां सराय जैसी जगह में लाकर डाल दिया है। कपड़े बदलने और आराम करने के लिए कुछ तो एकांत स्थान चाहिए।’’
बापू ने एक भाई को बुलाकर कहा, ‘‘इस बरामदे के कोने में बांस और तिरपाल लगाकर एक कमरा बना दो।’’
उस भाई ने वैसा ही किया। एक घंटे के बाद उसने बापू को खबर दी, ‘‘चलिए, वहां देख लीजिए ‘बा’ के लिए कमरा बन गया।’’
बापू-बा को साथ लेकर उसे देखने गए और बोले, ‘‘बहुत अच्छा, यह तो बहुत अच्छा ‘महल’ बन गया है।’’ और उन्होंने ‘बा’ से पूछा, ‘‘क्यों ठीक है न?’’
‘बा’ का सहज उत्तर था, ‘‘हां ठीक है।’’ और बापू ने आगे कहा ‘‘हम गरीब जो ठहरे, गरीबों की भांति हमको भी कठिनाइयों का सामना करना चाहिए लेकिन एक कमरा तो अच्छा बन गया है।’’ बा को बापू ऐसे फुसला रहे थे, मानो ‘बा’ कोई छोटी सी बच्ची हों।
बापू ने खाना बनाया
साबरमती आश्रम में रसोई घर का सारा प्रबंध ‘बा’ करती थीं। बापू के मेहमानों की क्या कमी? एक दिन की बात है दोपहर को भोजन समाप्त हो गया। काम से छुट्टी पाकर थकी-थकाई ‘बा’ अपने कमरे में जाकर सो गईं। एक घंटे बाद कुछ विशिष्ट मेहमान आ गए। भोजन पुन: बनाने के लिए ‘बा’ से कहने का बापू का साहस न हुआ। रसोई घर में ‘बा’ की सहायता एक लड़का करता था।
बापू ने उससे कहा, ‘‘कुछ मेहमान आ गए हैं ‘बा’ को सोने दो। तुम आग जलाओ और साग-सब्जी काटो। कुसुम को सहायता के लिए बुला लो। वह आटा गूंथेगी, ‘बा’ को तभी जगाना जब उनकी आवश्यकता हो।’’
कुसुम और बालक ने चुपचाप बापू के कहे अनुसार कार्य करना प्रारंभ कर दिया। तरकारी तैयार हो गई, आटा गूंथ दिया। इतने में हाथ में तश्तरी गिर जाने के कारण ‘झंकार’ की आवाज से ‘बा’ जाग गई और वहां पहुंची।
‘‘यह सब क्या हो रहा है?’’ कुसुम ने सब हाल बता दिया।
‘‘तो तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया?’’
‘बा’ का सहज प्रश्र था। मैं समझ गई यह बापू का षडयंत्र था।’’
रात्रि को ‘बा’ ने बापू से जवाब तलब किया, ‘‘भोजन बनाने के लिए तुमने मुझसे क्यों नहीं कहा?’’
‘‘ऐसे मौकों पर मुझे तुमसे डर लगता है।’’ बापू ने कहा। ‘‘आप और मुझसे डरते हैं?’’ यह कहते हुए ‘बा’ जोर से हंसने लगीं। बापू के अधरों पर भी मधुर हास बिखर पड़ा।
सेवा की प्रतिमूर्ति
साबरमती और सेवाग्राम आश्रम में ‘बा’ को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। आश्रमवासी उन्हें मां जैसा सम्मान देते थे। ‘बा’ भी सबको आत्मीयता से प्रेम करती थीं। वह सबके दुख-दर्द का ध्यान रखती थीं। आश्रम की बहनें भी अपने परेशानियां ‘बा’ के सामने ही रखती थीं और वह उनका बड़े सहज ढंग से निराकरण कर देती थीं। आश्रम में जो भी विदेशी आते वे भी ‘बा’ की सहज सरलता के कायल बन जाते। आश्रमवासियों के साथ-साथ ‘बा’ ने हमेशा बापू की सुख- सुविधाओं का बराबर ध्यान रखा।