Kundli Tv- अथर्ववेद के इस श्लोक में छुपी है बहुत बड़ी सीख

punjabkesari.in Monday, Jul 23, 2018 - 03:29 PM (IST)

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द्वेष रहित होने के लिए सभी को अपने मन पर जमे हुए मैल का निवारण करना होगा। यह काम बिना साधना के नहीं हो सकता है और वह साधना है धर्माचरण। वैदिक धर्म आचरणात्मक धर्म है केवल विश्वासात्मक नहीं। अगर सब मनुष्य एक-दूसरे को प्यार करें और बिना किसी भेद-भाव के एक-दूसरे को समझे तो यह संसार द्वेष रहित हो जाए। 

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि व:।
अन्यो अन्यभिहर्यत वत्सं जातमिवाघन्या। (अथर्ववेद 3/30/1)


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उपर्युक्त मंत्र में जो सामाजिक शिक्षा दी गई है वह कुटुम्ब पर, नगर पर और देश पर लागू होती है। मनुष्य मात्र के लिए समान है। बिना सहृदयता के मनुष्य पशु से भी गिरा हुआ है।

यथा ‘‘मनुष्यता रूपेण वृकाश्चरन्ति’’ हृदयहीन सहानुभूति शून्य मनुष्य तो मानव रूप में भेड़िया है। यदि समाज में यह एकाकी गुण जाग्रत हो जाए तो सारा भ्रष्टाचार, कालुष्य और कष्ट दूर हो जाए। सहृदयता जन्मजात भी होती है और उसे शिक्षा द्वारा भी ग्रहण किया जा सकता है।

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मन में समझौता रहे, अपने साथ-साथ दूसरे के हितों का भी ध्यान रखें यह सब शिक्षा के द्वारा ही सम्प्रादन हो सकता है। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली इसमें बड़ी सहायक थी। बचपन से ही विद्यार्थी समूह में रहना सीखते थे। भोजन, रहन-सहन सब सामूहिक होता था, वैयक्तिक नहीं। इसलिए मन में सामंजस्य रखने का स्वभाव बन जाता था। इस प्रकार आचरणात्मक शिक्षा पाया हुआ व्यक्ति सर्वथा समाजवादी बन जाता था। समाजवाद उसकी आदत बन जाती थी।

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द्वेष रहित यदि सब हो जाएं और एक-दूसरे से जलें नहीं तो सबका ही कल्याण है। जलने वाला दूसरे को हानि पहुंचाने की धुन में अपनी हानि पहले ही कर डालता है। परोन्नति को देख कर दुखी होना अपने ऊपर व्यर्थ का दुख लादना है। कर्मफल विश्वासी मनुष्य कभी दूसरे को देखकर नहीं जल सकता और कर्म फल विश्वास आदि का अभ्यास होता है। आर्य दर्शन, उपनिषद गीतादि के निरंतर स्वाध्याय से। 

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