प्रतापगढ़ में है 900 साल पुराना अष्टभुजा मंदिर, सिर कटी मूर्तियों की होती है पूजा

Tuesday, Apr 05, 2022 - 04:15 PM (IST)

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जो लोग हिंदू धर्म से संबंध रखते हैं, उन्हें इस बात की जानकारी तो होगी ही इसके धर्म ग्रंथों में वर्णन किया गया है कि खंडित प्रतिमाओं की न तो पूजा की जाती है न ही उन्हें घर में रखना चाहिए। परंतु आज हम आपको बिल्कुल इसके विपरीत बात बताने वाले हैं। जी हां, आप सही सोच रहे हैं। हम एक ऐसे स्थल के बारे में बताने जा रहे हैं जहां न केवल खंडित मूर्ति स्थापित हैं, बल्कि उसकी विधि वत रूप से पूजा भी की जाती है। दरअसल हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश में स्थित एक ऐसे मंदिर के दर्शन करवाएंगे जहां पर खंडित मूर्तियों की 900 साल से पूजा की जा रही है।  बता दें कि राजधानी से 170 किमी दूर प्रतापगढ़ के गोंडा गांव में बने अष्टभुजा धाम मंदिर की मूर्तियों के सिर औरंगजेब ने कटवा दिए थे। शीर्ष खंडित ये मूर्तियां आज भी उसी स्थिति में इस मंदिर में संरक्षित की गई हैं।  इस मंदिर से जुड़ी कई ऐसी ख़ास बातें जो शायद आजतक किसी को न पता होगी।



आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के रिकॉर्ड की मानें तो मुगल शासक औरंगजेब ने 1699 ई. में हिन्दू मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया था। उस समय इस मंदिर को बचाने के लिए यहां के पुजारी ने इसका मुख्य द्वार मस्जिद के आकार में बनवा दिया था, जिससे भ्रम पैदा हो और ये मंदिर टूटने से बच जाए और शायद ऐसा होने भी वाला था। क्योंकि मस्जिद का दरवाज़ा देखकर सभी सेनापति वहां से निकल गए थे। लेकिन एक सेनापति की नज़र मंदिर में टंगे घंटे पर पड़ गई। और उसे शक हो गया, फिर उसने अपने सैनिकों को मंदिर के अंदर जाने के लिए कहा और यहां स्थापित सभी मूर्तियों के सिर काट दिए गए।. आज भी इस मंदिर की मूर्तियां वैसी ही अवस्था में देखने को मिलती हैं।


इसके अलावा ऐसा भी कहा जाता है कि मंदिर में आठ हाथों वाली अष्टभुजा देवी की मूर्ति थी। गांव वाले बताते हैं कि वो प्राचीन प्रतिमा 15 साल पहले वह चोरी हो गई। इसके बाद सामूहिक सहयोग से ग्रामीणों ने यहां अष्टभुजा देवी की पत्थर की मूर्ति स्थापित करवाई।  आपको बता दें कि प्रतापगढ़ का अस्तित्व रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ काल जितना पुराना है। ऐसा माना जाता है कि भगवान राम इस जगह पर आये थे और उन्होंने बेला भवानी मंदिर में पूजा की थी। बताया जाता है कि महाभारत में जिस भयहरण नाथ मंदिर का वर्णन आता, वो यही मंदिर है। पौराणिक कथा के अनुसार भीम ने बकासुर नाम के दानव का वध कर इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी। यहां बहने वाली सई नदी को हिन्दू श्रद्धालुओं द्वारा पवित्र माना जाता है और वे यहां आकर इसके पवित्र जल में डुबकी लगा कर पुण्य कमाते हैं।



तो वहीं अगर मंदिर के प्राचीन होने की बात की जाए तो अष्टभुजा नामक इस धाम की दीवारों, नक्काशियां और विभिन्न प्रकार की आकृतियों को देखने के बाद इतिहासकार और पुरातत्वविद इसे 11वीं शताब्दी का बना हुआ मानते हैं। कहते हैं कि इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी क्षत्रिय घराने के राजा ने करवाया था। मंदिर के गेट पर बनीं आकृतियां मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध खजुराहो मंदिर से काफी मिलती-जुलती हैं। इसके अलावा मंदिर के मेन गेट पर एक विशेष भाषा में कुछ लिखा है। यह कौन-सी भाषा है, यह समझने में कई पुरातत्वविद और इतिहासकार फेल हो चुके हैं। कुछ इतिहासकार इसे ब्राह्मी लिपि बताते हैं तो कुछ उससे भी पुरानी भाषा का, लेकिन यहां क्या लिखा है, यह अब तक कोई नहीं समझ सका है।  मंदिर के पुजारियों के मुताबिक मंदिर के जीर्णोद्धार में ग्रामीण काफी मदद करते हैं, लेकिन इस ऐतिहासिक धरोहर को बचने के लिए प्रशासनिक मदद बहुत जरूरी है।

Jyoti

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