श्री कृष्ण कैसे करते हैं अपने भक्तों की इच्छाएं पूर्ण

punjabkesari.in Monday, Jun 15, 2015 - 03:34 PM (IST)

प्रत्येक व्यक्ति की सफलता भगवान की कृपा पर

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 3 (कर्मयोग)

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥ 11॥

ये—जो; यथा—जिस तरह; माम्—मेरी; प्रपद्यन्ते—शरण में जाते हैं; तान्—उनको; तथा—उसी तरह; एव—निश्चय ही; भजामि—फल देता है; अहम—मैं; मम—मेरे; वत्र्म—पथ का; अनुवर्तन्ते—अनुगमन करते हैं; मनुष्या:— सारे मनुष्य; पार्थ—हे पृथापुत्र; सर्वश:—सभी प्रकार से।

अनुवाद : जो जिस भाव से सब मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूं। हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।

तात्पर्य : प्रत्येक व्यक्ति श्री कृष्ण को अनेक, विभिन्न स्वरूपों में खोज रहा है। भगवान श्रीकृष्ण को अंशत: उनके ब्रह्मज्योति तेज में तथा प्रत्येक वस्तु के कण-कण में रहने वाले सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में अनुभव किया जाता है लेकिन कृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार तो उनके शुद्ध भक्त ही कर पाते हैं।

फलत: श्री कृष्ण प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूति के विषय हैं और इस  तरह कोई भी और सभी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार तुष्ट होते हैं। दिव्य जगत में भी श्री कृष्ण अपने भक्तों से उनके चाहने के अनुसार दिव्य प्रवृत्ति का विनिमय करते हैं। कोई एक भक्त श्री कृष्ण को परम स्वामी के रूप में चाह सकता है, दूसरा अपने सखा के रूप में, तीसरा अपने पुत्र के रूप में और चौथा अपने प्रेमी के रूप में।

श्री कृष्ण सभी भक्तों को समान रूप से उनके प्रेम की प्रगाढ़ता के अनुसार फल देते हैं। भौतिक-जगत में भी ऐसी ही विनिमय की अनुभूतियां होती हैं और वे विभिन्न प्रकार के भक्तों के अनुसार भगवान् द्वारा समभाव से विनिमय की जाती हैं। शुद्ध भक्त यहां पर और दिव्यधाम में भी कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करते हैं और भगवान् की साकार सेवा कर सकते हैं। इस तरह वे उनकी प्रेमाभक्ति का दिव्य आनंद प्राप्त करते हैं। जो सकामकर्मी हैं, भगवान् उन्हें यज्ञेश्वर के रूप में उनके कर्मों का वांछित फल देते हैं। जो योगी हैं और योगशक्ति की खोज में रहते हैं, उन्हें योगशक्ति प्रदान करते हैं।

अत: जब तक कोई कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि तक नहीं पहुंच जाता तब तक सारे प्रयास अपूर्ण रहते हैं, जैसा कि श्रीमद्भागवत में (2.3.10) कहा गया है-

अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी:।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्॥


‘‘मनुष्य चाहे निष्काम हो या फल का इच्छुक हो या मुक्ति का इच्छुक ही क्यों न हो, उसे पूरे सामर्थ्य से भगवान की सेवा करनी चाहिए जिससे उसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सके, जिसका पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है।’’    

(क्रमश:)


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