भगवान की दिव्यसंगति प्राप्ति का सुगम मार्ग

Saturday, Jun 06, 2015 - 02:57 PM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 3 (कर्मयोग)

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। 1।।


 जन्म—जन्म; कर्म—कर्म; च—भी; मे—मेरे; दिव्यम्—दिव्य; एवम्—  इस प्रकार; य:— जो कोई; वेत्ति—जानता है; तत्वत:—वास्तविकता में; त्यक्त्वा—छोड़कर; देहम्—इस शरीर को; पुन:—फिर; जन्म—जन्म; न—कभी नहीं; एति—प्राप्त करता है; माम्— मुझको; एति—प्राप्त करता है; स:—वह;  अर्जुन—हे अर्जुन।

अनुवाद : हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोडऩे पर इस भौतिक संसार में पुन: जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

तात्पर्य : छठे श्लोक में भगवान् के दिव्यधाम से उनके अवतरण की व्याख्या हो चुकी है। जो मनुष्य भगवान् के आविर्भाव के सत्य को समझ लेता है वह इस भवबंधन से मुक्त हो जाता है और इस शरीर को छोड़ते ही वह तुरंत भगवान के धाम को लौट जाता है। भवबंधन से जीव की ऐसी मुक्ति सरल नहीं है। र्निवशेषवादी तथा योगीजन पर्याप्त कष्ट तथा जन्म-जन्मांतर के बाद ही मुक्ति प्राप्त कर पाते हैं। इतने पर भी उन्हें जो मुक्ति भगवान् की निराकार ब्रह्मज्योति में तादात्म्य प्राप्त करने के रूप में होती है, वह आंशिक होती है और इस भौतिक संसार में लौट आने का भय बना रहता है किन्तु भगवान् के शरीर की दिव्य प्रकृति तथा उनके कार्यकलापों को समझने मात्र से भक्त इस शरीर का अंत होने पर भगवद्धाम को प्राप्त करता है और उसे इस संसार में लौट कर आने का भय नहीं रह जाता।

ब्रह्मसंहिता में (5.33) यह बताया गया है कि भगवान् के अनेक रूप तथा अवतार हैं-अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम्। यद्यपि भगवान् के अनेक दिव्य रूप हैं, किन्तु फिर भी वे अद्वय भगवान् हैं। इस तथ्य को विश्वासपूर्वक  समझना चाहिए, यद्यपि यह संसारी विद्वानों तथा ज्ञानयोगियों के लिए अगम्य है। जैसा कि वेदों (पुरुष बोधिनी उपनिषद्) में कहा गया है : एको देवो नित्यलीलानुरक्तो भक्तव्यापी हृद्यन्तरात्मा।।

‘‘भगवान् अपने निष्काम भक्तों के साथ अनेकानेक दिव्य रूपों में सदैव संबंधित है।’’

इस वेदवचन की स्वयं भगवान् ने गीता के इस श्लोक में पुष्टि की है। जो इस सत्य को वेद तथा भगवान् के प्रमाण के आधार पर स्वीकार करता है और शुष्क चिंतन में समय नहीं गंवाता वह मुक्ति की चरम सिद्धि प्राप्त करता है। इस सत्य को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करने से मनुष्य निश्चित रूप से मुक्ति लाभ कर सकता है। इस प्रसंग में वैदिक वाक्य तत्वमसि लागू होता है।

जो कोई भगवान् श्री कृष्ण को परब्रह्म करके जानता है या उनसे यह कहता है कि ‘‘आप वही परब्रह्म श्री भगवान हैं।’’

वह निश्चित रूप से अविलम्ब मुक्त हो जाता है, फलस्वरूप उसे भगवान की दिव्यसंगति की प्राप्ति निश्चित हो जाती है। 
(क्रमश:)

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