भक्तों का उद्धार तथा दुष्टों का संहार करने के लिए विभिन्न अवतार लेते हैं भगवान

Tuesday, May 26, 2015 - 03:46 PM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 3 (कर्मयोग)

परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।8।।


परित्राणाय—उद्धार के लिए; साधुनाम्—भक्तों के; विनाशाय—संहार के लिए; च—तथा; दुष्कृताम्—दुष्टों के; धर्म—धर्म के; संस्थापन-अर्थाय—पुन: स्थापित करने के लिए; सम्भवामि —प्रकट होता हूं; युगे—युग; युगे—युग में।

अनुवाद : भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं।

तात्पर्य : भगवद्गीता के अनुसार  साधु (पवित्र पुरुष) कृष्ण भावना भावित व्यक्ति है। अधार्मिक लगने वाले व्यक्ति में भी यदि पूर्ण कृष्णचेतना हो तो उसे साधु समझना चाहिए। दुष्कृताम् उन व्यक्तियों के लिए आया है जो कृष्णभावनामृत की परवाह नहीं करते। ऐसे दुष्कृताम या उपद्रवी, मूर्ख तथा अधम व्यक्ति कहलाते हैं, भले ही वे सांसारिक शिक्षा से विभूषित क्यों न हों। इसके विपरीत यदि कोई शत-प्रतिशत कृष्ण भावनामृत में लगा रहता है तो वह विद्वान या सुसंस्कृत न भी हो फिर भी वह साधु माना जाता है।

जहां तक अनीश्वरवादियों का प्रश्र है, भगवान के लिए आवश्यक नहीं कि वह इनके विनाश के लिए उस रूप में अवतरित हों जिस रूप में वह रावण तथा कंस का वध करने के लिए हुए थे। भगवान के ऐसे अनेक अनुचर हैं जो असुरों का संहार करने में सक्षम हैं। किन्तु भगवान तो अपने उन निष्काम भक्तों को तुष्ट करने के लिए विशेष रूप से अवतार लेते हैं जो असुरों द्वारा निरंतर तंग किए जाते हैं।
 
असुर भक्त को तंग करता है, भले ही वह उसका सगा-संबंधी क्यों न हो। यद्यपि प्रह्लाद महाराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे किन्तु तो भी वह अपने पिता द्वारा उत्पीड़ित थे। इसी प्रकार श्री कृष्ण की माता देव की यद्यपि कंस की बहन थीं, किन्तु उन्हें  तथा उनके पति वासुदेव को इसलिए दंडित किया गया था क्योंकि उनसे श्री कृष्ण को जन्म लेना था।

अत: भगवान् कृष्ण मुख्यत: देवकी का उद्धार करने के लिए प्रकट हुए थे, कंस को मारने के लिए नहीं। किन्तु ये दोनों कार्य एक साथ सम्पन्न हो गए। अत: यह कहा जाता है कि भगवान भक्त का उद्धार करने तथा दुष्ट असुरों का संहार करने के लिए विभिन्न अवतार लेते हैं।

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