भगवान प्रत्येक अवतार में क्या सीख देते हैं?

Thursday, May 21, 2015 - 11:24 AM (IST)

भगवान स्वेच्छा से प्रकट होते हैं

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 3 (कर्मयोग)

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।7।।

यदा यदा—जब भी और जहां भी; हि—निश्चय ही; धर्मस्य—धर्म की; ग्लानि:—हानि, पतन; भवति—होती है; भारत—हे भरतवंशी; अभ्युत्थानम्—प्रधानता; अधर्मस्य—अधर्म की; तदा—उस समय;आत्मानम्—अपने को; सृजा-मि—प्रकट करता हूं; अहम्—मैं;

अनुवाद

हे भरतवंशी! जब भी और जहां भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है तब-तब मैं अवतार लेता हूं।

तात्पर्य

यहां पर सृजामि शब्द महत्वपूर्ण है। सृजामि सृष्टि के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हो सकता क्योंकि पिछले श्लोक के अनुसार भगवान के स्वरूप या शरीर की सृष्टि नहीं होती क्योंकि उनके सारे स्वरूप शाश्वत रूप से विद्यमान रहने वाले हैं। अत: सृजामि का अर्थ है कि भगवान स्वयं यथारूप में प्रकट होते हैं।

यद्यपि भगवान कार्यक्रमानुसार अर्थात् ब्रह्मा के एक दिन में सातवें मनु के 28वें युग में द्वापर के अंत में प्रकट होते हैं किंतु वह इस नियम का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं क्योंकि वह स्वेच्छा से कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं। अत: जब भी अधर्म की प्रधानता तथा धर्म का लोप होने लगता है तो वह स्वेच्छा से प्रकट होते हैं।

धर्म के नियम वेदों में दिए हुए हैं और यदि इन नियमों के पालन में कोई त्रुटि आती है तो मनुष्य अधार्मिक हो जाता है। श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि ऐसे नियम भगवान के नियम हैं। केवल भगवान ही किसी धर्म की व्यवस्था कर सकते हैं। वेद भी मूलत: ब्रह्मा के हृदय में से भगवान द्वारा उच्चरित माने जाते हैं। अत: धर्म के नियम भगवान के प्रत्यक्ष आदेश हैं। (धर्म तु साक्षाद्भगवत्प्रणीतम्)। भगवद्गीता में आद्योपांत इन्हीं नियमों का संकेत है।

वेदों का उद्देश्य परमेश्वर के आदेशानुसार ऐसे नियमों की स्थापना करना है और गीता के अंत में भगवान स्वयं आदेश देते हैं कि सर्वोच्च धर्म उनकी ही शरण ग्रहण करना है। वैदिक नियम जीव को पूर्ण शरणागति की ओर अग्रसर करते हैं और जब भी असुरों द्वारा इन नियमों में व्यवधान आता है तभी भगवान प्रकट होते हैं।

श्रीमद्भागवत पुराण से हम जानते हैं कि बुद्ध कृष्ण के अवतार हैं जिनका प्रादुर्भाव उस समय हुआ जब भौतिकवाद का बोलबाला था और भौतिकतावादी लोग वेदों को प्रमाण बनाकर उसकी आड़ ले रहे थे।

भगवान के प्रत्येक अवतार का विशेष उद्देश्य होता है और इन सबका वर्णन शास्त्रों में हुआ है। यह तथ्य नहीं है कि केवल भारत की धरती में भगवान अवतरित होते हैं। वह कहीं भी और किसी भी काल में इच्छा होने पर प्रकट हो सकते हैं। वह प्र्रत्येक अवतार लेने पर धर्म के विषय में उतना ही कहते हैं जितना कि उस परिस्थिति में जन-समुदाय विशेष समझ सकता है लेकिन उद्देश्य एक ही रहता है- लोगों को शभावनाभावित करना तथा धार्मिक नियमों के प्रति आज्ञाकारी बनाना। कभी वह स्वयं प्रकट होते हैं तो कभी अपने प्रामाणिक प्रतिनिधि को अपने पुत्र या दास के रूप में भेजते हैं या वेश बदल कर स्वयं ही प्रकट होते हैं।

भगवद्गीता के सिद्धांत अर्जुन से कहे गए थे, अत: वे किसी भी महापुरुष के प्रति हो सकते थे क्योंकि अर्जुन संसार के अन्य भागों के सामान्य पुरुषों की अपेक्षा अधिक जागरूक थे। दो और दो मिलकर चार होते हैं यह गणितीय नियम प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी के लिए उतना ही सत्य है जितना उच्च कक्षा के विद्यार्थी के लिए। तो भी गणित उच्च स्तर तथा निम्रस्तर का होता है।

अत: भगवान प्रत्येक अवतार में एक जैसे सिद्धांतों की शिक्षा देते हैं जो परिस्थितियों के अनुसार उच्च या निम्र प्रतीत होते हैं।

     (क्रमश:) 

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