ऐसे लोगों के समीप रहने से मिलती है सुखी जीवन की सौगात

Thursday, May 21, 2015 - 08:15 AM (IST)

 केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्याऽ अपेशसे। समुषद्भिरजायथा:।।

(यजुर्वेद 29/37, ऋग्वेद 1/6/3, सामवेद 1970, अथर्ववेद 20/69/11)

जो पुरुष अपने ही समान दूसरों को भी सुखी देखने की भावना रखते हैं, उनके पास रहने से विद्या प्राप्त होती है और अज्ञान का अंधकार दूर होता है, धन प्राप्त होता है और दरिद्रता का विनाश होता है। अतएव हम सब आत्मदर्शी महापुरुषों के समीप रहें। इस समय तो अधिकांश लोग आत्मा को भूलकर केवल अपने शरीर की पूजा करने में व्यस्त हैं। इस शरीर और मृत्यु के बाद शव में क्या अंतर है? शरीर की जीवंतता किससे है? जब तक इसमें आत्मा की चेतनता है, शरीर की भी सार्थकता है अन्यथा वह शव है। फिर उसमें क्या रह जाता है? न ज्ञान है, न रूप है, न भावना है और न ही कोई संवेदन है। शव को छूकर मनुष्य अपने को अपवित्र मानने लगता है।

उस परमपिता परमेश्वर का अंश, वह आत्मा जब तक, इस मरणशील, अरूप, शरीर में रहता है तो वही इसे रूप सौंदर्य की आभा प्रदान करता है। ज्ञान रहित अवस्था वाले इस शरीर में ज्ञान और जीवन लाता है। परमात्मा ही अपनी समस्त जागृत शक्तियों के साथ इसमें चेतनता के रूप में उदय होता है उसके समाए रहने के कारण, उसके स्पर्श से ही इस शरीर की पवित्रता है। यह परमेश्वर का कितना अद्भुत महात्म्य है।

मनुष्य अज्ञानता के अंधेरे में भटकता हुआ इस परम सत्य को नहीं समझ पाता, जो इसे समझ लेता है उसे ‘आत्मदर्शी’ कहते हैं परंतु ऐसे लोगों की संख्या काफी कम है।

ऐसे महापुरुषों का सत्संग, पारस पत्थर के समान जीवन को कुंदन बना देता है, अविद्या के अंधेरे से निकाल कर विद्या के स्वर्णिम प्रकाश में पहुंचा देता है। जीवन की सार्थकता और उपयोगिता का ज्ञान करा देता है। कुविचारों के बैरियर से मन अच्छे कार्यों की तरफ नहीं बढ़ पाता।

गुण, कर्म और स्वभाव में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का अधिकाधिक समावेश होने से मानव में इस संसार को, भगवान के इस विराट रूप को और अधिक विकसित करने की इच्छा होती है। लोक मंगल, परमार्थ प्रयोजन, समाज में फैले अज्ञान, अनाचार और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए वह अपनी क्षमता और प्रतिभा का भरपूर प्रयोग करने लगता है। सत्संग के प्रभाव से पूरा समाज स्वर्ग जैसा दिखने लगता है।

 
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