कृष्णावतार

Friday, Apr 24, 2015 - 11:11 AM (IST)

महर्षि वेद व्यास जी के उपदेश के अनुसार इंद्र के दर्शन करवाने वाली विद्या से युक्त होकर अर्जुन बड़ी सावधानी से चलते हुए इंद्रलोक के निकट जा पहुंचे तो वहां अचानक रुक जाने की आवाज सुन कर उन्होंने इधर-उधर देखा। कुछ दूर एक वृक्ष की छाया में एक तपस्वी विराजमान थे जिनका शरीर दुर्बल था परन्तु मुख पर ब्रह्म तेज चमक रहा था। उस जटाधारी तपस्वी को देख कर वीर अर्जुन ने उन्हें दूर से ही साक्षात दंडवत की जिस पर तपस्वी ने हाथ उठा कर अर्जुन को आशीर्वाद दिया, ‘‘100 वर्ष की आयु पाओ, दिग्विजयी और अजातशत्रु कहलाओ परन्तु यहां तो शस्त्र लेकर आने का कोई प्रयोजन नहीं हो सकता तुम्हारा। यहां शांत स्वभाव वाले तपस्वी ही रहते हैं। युद्ध यहां कभी होता ही नहीं। इसलिए तुम अपना धनुष फैंक दो बेटे।’’

तपस्वी ने हंस कर अर्जुन से कई बार धनुष फैंक देने के लिए उक्त शब्द कहे परन्तु अर्जुन ने उनकी बात अनसुनी कर दी और निश्छल खड़े रहे। वह सोच रहे थे कि क्षत्रिय यदि अपने शस्त्र ही फैंक दे यह तो उचित नहीं, क्षत्रिय तो पहचाना ही अपने शस्त्रों से जाता है।
 
अर्जुन को अविचल खड़ा देख कर तपस्वी ने हंस कर पुन: कहा, ‘‘पुत्र अर्जुन, मैं इंद्र हूं, तुम्हारी जो इच्छा हो वह तुम मुझसे मांग लो।’’
 
यह सुन कर अर्जुन ने एक बार फिर उनके चरणों में शीश नवाया। फिर वह हाथ जोड़ कर खड़े हो गए तथा कहने लगे, ‘‘भगवन, मैं आपसे सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र विद्या सीखना चाहता हूं, आप मुझ पर यही कृपा कीजिए।’’
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