कृष्णावतार

punjabkesari.in Sunday, Mar 15, 2015 - 10:10 AM (IST)

उन्हीं दिनों महर्षि मार्कंडेय वहां पहुंचे। उनका पांचों भाइयों तथा द्रौपदी ने सम्मानपूर्वक आदर-सत्कार किया और आसन बिछाकर महर्षि से बैठने का अनुरोध किया। इसके बाद पांचों भाई द्रौपदी समेत महर्षि मार्कंडेय के चरणों में बैठ गए। कुछ देर महर्षि मार्कंडेय चुपचाप बैठे उनकी ओर देख कर मुस्कराते रहे। युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन आदि को मुनिवर के मुस्कराने पर अचंभा हुआ और वे उदास हो गए। 
 
इसके बाद मुनिवर ने स्वयं ही कहा, ‘‘इस स्थिति में मुझे मुस्कराते हुए देखकर तुम सब उदास हो गए हो। सत्य मानो मुझे किसी प्रकार का अभिमान नहीं है और न ही किसी को दुखी देखकर मुझे प्रसन्नता होती है परंतु इस समय तुम सबको इस स्थिति में देखकर मुझे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम चंद्र जी की याद आ गई। वह भी मर्यादा की रक्षा करने के लिए अपने पिता की आज्ञा मानकर केवल धनुष बाण, सीता और लक्ष्मण को साथ लेकर वन में आ बसे थे। जैसे तुम सब आ बसे हो। श्री राम को संग्राम में देवता, दानव या दैत्य कोई भी नहीं जीत सकता था। फिर भी उन्होंने राज, सुख और भोगों को त्याग कर वन में वास किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि ‘‘मैं बड़ा बलवान हूं,’’ यह सोच कर मनुष्य को अधर्म नहीं करना चाहिए। बड़े-बड़े इतिहास प्रसिद्ध महाराजाओं ने धर्म और सत्य के बल पर ही राज किया है। तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वनवास की अवधि सम्पूर्ण कर लेने के पश्चात कौरवों से अपना राज्य छीन लोगे।’’
 
इस प्रकार बातें करके और बहुत कुछ धर्म उपदेश करके महर्षि मार्कंडेय उत्तर दिशा को चले गए। जब पांचों पांडव द्वैत वन में आकर रहने लगे थे तभी से उस विशाल वन में हर समय विद्वान-पंडित आने लगे। वन में और सरोवर के निकट वेदों का पाठ होता था और इसीलिए वह वन ब्रह्म लोक के समान जान पड़ता था।                                                                                                                                                                                                                                                                                                              (क्रमश:)  

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