कृष्णावतार

Sunday, Mar 01, 2015 - 03:10 PM (IST)

‘‘कृष्ण इन दिनों तुम कहां थे?’’ युधिष्ठिर ने कृष्ण जी से पूछा ।‘‘मैं इन दिनों शाल्व और उसके नगर का नाश करने के लिए द्वारका के उत्तर-पश्चिम के मरुदेश (सिंध के रेगिस्तान) में गया हुआ था । यह तो आपको पता ही है कि शाल्व शिशुपाल का मित्र था और शिशुपाल की मृत्यु के बाद वह आपके राजसूय यज्ञ से उठ कर चला गया था । उसने अपनी राजधानी में पहुंच कर सेना इक्ट्ठी की और द्वारका पर चढ़ दौड़ा था । इसी कारण मुझे भी सूचना मिलते ही इन्द्रप्रस्थ से अचानक ही जाना पड़ गया था ।

वह सात धातुओं से बने हुए विमान में बैठ कर द्वारिका के वीर कुमारों का वध करने लगा था । उसने बाग-बगीचे उजाड़ दिए थे । सुन्दर भवन जला कर राख कर दिए थे । परन्तु मेरे द्वारका पहुंचने से पहले ही प्रद्युम्न और साम्ब उसे और उसकी सेना को वहां से भगा चुके थे । मैंने द्वारका पहुंच कर जो बुरी हालत देखी, उसके कारण मैंने उसे ठिकाने लगाने का निश्चय कर लिया । मैंने उसकी खोज की । तब वह समुद्र के भयानक टापू में अपनी सेना सहित मुझे मिल गया ।

मैं अकेला ही उस द्वीप में पहुंचा । मैंने पांचजन्य शंख बजाया और शाल्व को युद्ध के लिए ललकारा ।’’श्री कृष्ण ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, ‘‘बहुत देर तक घोर युद्ध होता रहा, अन्त में शाल्व और उसकी सेना को मैंने यमलोक पहुंचा दिया और जब मैं लौट कर द्वारिका पहुंचा तो आप सबके बारे में समाचार मिला और मैं इधर चला आया । मैं हस्तीनापुर होकर यहां आया हूं ।’’सब लोग 3 दिन वन में पांडवों के साथ रहे । इस दौरान युधिष्ठिर ने उन्हें सब बातें बताईं और उन्हें शांत करते हुए कहा कि ‘‘मैं जो वचन दे चुका हूं उसकी लाज रखनी ही होगी।’’

Advertising