भारतीय जनता श्रीकृष्ण को इतना क्यों चाहती थी

Wednesday, Feb 25, 2015 - 08:48 AM (IST)

भगवान श्रीकृष्ण लोकोत्तर गुणों की खान थे। वह ज्ञान, विज्ञान एवं नीतियों के आधार थे। वह कोरे धर्मोपदेशक ही न थे बल्कि अपने उपदेशानुसार स्वयं चलने वाले भी थे। वह दुष्टों के शत्रु और शिष्टों के अनन्य मित्र थे। वह एक आदर्श दिव्यात्मा थे, अत: उनके उपदेश सबके लिए सर्वथा उपयोगी थे, अब भी हैं एवं सदैव रहेंगे।

आदर्श दिव्यात्मा होने के कारण श्रीकृष्ण के लिए धर्म के सिवा अन्य कोई भी अपना न था। जिन श्रीकृष्ण ने अपने अधर्मी एवं अन्यायी मामा कंस को तथा उसके ससुर जरासंध को क्षमा न किया और उन्हें उनके कर्मों के अनुरूप प्राणदंड दे दिया, वे श्रीकृष्ण भला उत्पाती एवं अधर्मी अपने कुलोद्भव यादवों पर क्षमा क्यों करने लगे? अत्याचारियों और अधर्मियों का नाश करने के अतिरिक्त श्रीकृष्ण के जीवन का लक्ष्य सबके लिए उच्च कोटि का एक आदर्श उपस्थित करना भी था। अत: धराधाम पर रहने के समय श्रीकृष्ण ने अपना जीवन आदर्श बनाया था।
 
हम जब श्रीकृष्ण के जीवन भर की समस्त घटनाओं पर दृष्टि डालते हैं तब हमें श्रीकृष्ण एक महाबली एवं आदर्श नररत्न दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने बड़े-बड़े नरहत्यारों एवं दानवों का नाश करके सुख-शांतिमय जीवन व्यतीत करने वाले जनों का दुख दूर किया, अधर्मी और अत्याचारी कंस को तथा उसके नामी दुर्दांत पहलवानों को एवं महा-उद्दंड जरासंध को सदा के लिए इस लोक से विदा कर दिया। श्रीकृष्ण लड़कपन से ही अनेक दिव्य कार्य करके जनसाधारण के श्रद्धा-भक्ति के पात्र बन गए थे। पीछे वे सुदूरवर्ती और समुद्र जल से घिरे हुए द्वारका नामक टापू में रह कर भी भारतवर्ष के समस्त राजाओं के ऊपर अपनी प्रभुता जमाए हुए थे। 
 
भारत के तत्कालीन सभी बड़े-बड़े राजा एवं राजनीति में कुशल विज्ञजन उनके आगे सहज ही सिर झुकाते थे। संसार में प्रसिद्ध ऋषि-मुनि, नामी ज्ञानीजन और बड़े-बड़े तपोधन उनको लोकोत्तर, गुणों की खान और अलौकिक प्रतिभा की सजीव मूर्त मान  उन्हें सबका एकमात्र नेता मानते थे। श्रीकृष्ण में अथाह पांडित्य एवं अनुभव था, साथ ही वह दीन-दुखियों एवं अनाथों के रक्षक थे और लोगों पर कृपा किया करते थे। 
 
भारतवर्ष की जनता पर उनका विलक्षण आधिपत्य था। यद्यपि उस समय की भारतीय जनता यह नहीं बतला सकती थी कि वह श्रीकृष्ण को इतना क्यों चाहती थी, तथापि भारतीय जनता श्रीकृष्ण को अपने प्राणों से भी अधिक मानती थी जिस प्रकार वह पापियों के लिए काल के समान यमदूत थे उसी प्रकार पुण्यात्माओं के लिए वह शांति एवं सुख प्रदान करने वाले थे।
 
श्रीकृष्ण के जमाने में भारतवर्ष में एक छोर से दूसरे छोर तक नवीन विचारों, नवीन धार्मिक योजनाओं एवं नित्य नए-नए आनंदों का साम्राज्य-सा छाया रहता था। कंस, दुर्योधन, जरासंध तथा शिशुपाल जैसे पापिष्ठ, दुष्ट एवं अत्याचारी राजाओं के आधिपत्य को नष्ट करके श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर जैसे प्रजाप्रिय एवं धर्मात्मा राजाओं के हाथों में देश के शासन की बागडोर दे दी थी।
 
यद्यपि श्रीकृष्ण का भेद तो कोई जान नहीं पाता था, तो भी लोगों की भक्ति उनमें पूर्ण थी, वे उनकी पूजा करते थे और उनके वचनों में लोगों की पूर्ण आस्था थी। देश के शासक उनसे डरते थे और हृदय से उनका आदर करते थे जिनके साथ श्रीकृष्ण की विशेष घनिष्ठता थी वे लोग उनको अपना स्वामी, पूज्य गुरु, श्रद्धेय पिता, सर्वथा रक्षक और अभिन्न हृदय मित्र मानते थे। श्रीकृष्ण अपने समय के एक ऐसे नामी योद्धा थे जिन्होंने बड़े-बड़े नामी शूरवीरों को पराजित किया था। 
 
वह गोपों की एक विशाल वाहिनी के प्रधान सेनापति थे। उनसे बढ़कर राजनीति विशारद न तो आज तक कोई हुआ है और उनको छोड़ कोई आगे हो ही सकता है। वे एकमात्र धर्मराज युधिष्ठिर के ही नहीं, प्रत्युत संपूर्ण आर्यावर्त के समस्त राजाओं के परामर्शदाता भी थे। वह ऐसे कूट राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने अपने समय में भारतवर्ष की छिन्न-भिन्न एवं परस्पर विरोधिनी समस्त राजशक्तियों को एक धर्मात्मा एवं न्यायवान सम्राट की विजय पताका के नीचे एकत्र कर दिया था।
 
श्रीकृष्ण की दूरद्रर्शिता एवं व्यवस्था से बलवान निर्बलों पर किसी प्रकार का अत्याचार करने का साहस नहीं कर सकते थे। धार्मिक क्षेत्र में भी श्रीकृष्ण का ही सिक्का जमा हुआ था। गोप जाति में चिरकाल से प्रचलित इंद्र-यज्ञ की जगह श्रीकृष्ण ने गो-पूजन प्रचलित किया था। श्रीकृष्ण ने इंद्र-यज्ञ को बंद करवा कर गिरिपूजा रूपी यज्ञ की नींव डाली। आज भगवान श्रीकृष्ण को मानवी लीला संवरण किए साढ़े पांच सहस्र वर्षों के लगभग व्यतीत हो चुके हैं परन्तु उनकी प्रचलित की हुई गिरिपूजा आज तक प्रतिवर्ष आस्तिक हिंदुओं के घरों में हुआ करती है जो दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा (अन्नकूट) के नाम से प्रसिद्ध है।
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