क्यों करते हैं मंदिरों में परिक्रमा?

punjabkesari.in Wednesday, Feb 25, 2015 - 08:14 AM (IST)

वैदिक धर्म में परिक्रमा का बड़ा महत्त्व है। परिक्रमा का अर्थ है किसी व्यक्ति या वस्तु के चारों ओर उसकी बाहिनी तरफ से घूमना। इसे ''प्रदक्षिणा'' भी कहते हैं, वैदिक धर्म में परिक्रमा करना षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है।  परिक्रमा का प्राथमिक कारण सूर्यदेव की दैनिक चाल से संबंधित है। जिस तरह से सूर्य प्रात: पूर्व में निकलता है, दक्षिण के मार्ग से चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार वैदिक विचारकों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा विध्नविहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने का विधान किया गया है। 

वैदिक काल से ही परिक्रमा करने को देवमूर्ति को प्रभावित करने का कार्य समझा जाता रहा है। वैदिक धर्म में मंदिरों की परिक्रमा करना महज एक औपचारिकता नहीं है। वैदिक धर्म पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है अतः इसकी हर गतिविधि का ठोस वैज्ञानिक आधार है क्योंकी हर एक सामान्य व्यक्ति उच्च वैज्ञानिक कारण समझ नहीं पाता अतः हमारे ऋषि-मुनियों ने वैदिक धर्म से जुडी हर गतिविधि को रीति-रिवाज़ का रूप दे दिया था। वैदिक पद्धति के अनुसार मंदिर व शिवालयों का निर्माण सैदेव वहीं किया जाता है जहां पृथ्वी की चुम्बकीय तरंगे घनी होती हैं। इन देवस्थानों में गर्भ गृह में देवताओं की मूर्ति ऐसी जगह पर स्थापित की जाती है जहां चुम्बकीय तरंगों का नाभिकीय क्षेत्र विद्यमान हो।

विज्ञान के अनुसार सौर्यमंडल में सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। इसी क्रम में ग्रहों में सूर्य कि परिक्रमा करने से गुरत्वाकर्षण बल उतपन्न होता है अर्थात ग्रहों में आकर्षण शक्ति पैदा होती है। पृथ्वी और सभी ग्रह अपने इर्द-गिर्द ही परिक्रमा करते हैं। हर गोल घूमने वाली वस्तु के घूमने से आकर्षण शक्ति उत्पन्न होती है। प्रदक्षिणा के दो भाग हैं पहला परिभ्रमण और दूसरा घूर्णन। यदि हम अपने हाथ में बाल्टी में पानी रखकर जोर से गोल घूमे तो पानी नहीं गिरेगा उसी तरह जब पृथ्वी घूम रही है तो उस पर के सभी जड़ पदार्थ उसी पर रहते है। वैज्ञानिक दृष्टि से इसे अभिकेंद्र बल अथवा अपकेंद्र बल कहा जाता है। इसी भांति हर अणु में इलक्ट्रोन अर्थात विद्युदणु भी परिक्रमा कर रहे हैं तथा यह विद्युदणु अपने अणु से इलक्ट्रोन बोन्डिंग के आधार पर जुड़े रहते हैं। 

जो व्यक्ति रोज़ मंदिर में मूर्ती की घडी के चलने की दिशा में परिक्रमा (प्रदक्षिणा) करता है। वह देवता की एनर्जी को अवशोषित कर लेता है। यह एक धीमी प्रक्रिया है और नियमित ऐसा करने से व्यक्ति की सकारात्मक शक्ति का विकास होता है। अतः मंदिरों को तीन तरफ से बंद बनाया जाता है जिससे इस ऊर्जा का असर बढ़ जाता है। मूर्ती के सामने प्रज्वलित दीप उष्मा की ऊर्जा का वितरण करता है एवं, घंटियों की ध्वनि तथा लगातार होते रहने वाले मंत्रोच्चार से एक ब्रह्माण्डीय नाद बनती है। जो, ध्यान केन्द्रित करती है। यही कारण है कि तीर्थ जल मंत्रोच्चार से उपचारित होता है।

जब हम मूर्ती की परिक्रमा करते है तो हमारी तरफ देवता की सकारात्मक शक्ति आकृष्ट होती है और जीवन की नकारात्मकता घटती है। नकारात्मकता से ही पाप उत्पन्न होते हैं

तभी तो ये मंत्र परिक्रमा करते समय बोला जाता है - ''''यानी कानी च पापानि, जन्मांतर कृतानि च। तानी तानी विनश्यन्ति, प्रदक्षिण पदेपदे।।'''' 

प्राण प्रतिष्ठित ईश्वरीय प्रतिमा की पवित्र वृक्ष की, यज्ञ या हवन कुंड की परिक्रमा की जाती है जिससे उसकी सकारात्मक शक्ति हमारी तरफ आकृष्ट हो।

आचार्य कमल नंदलाल

ईमेल kamal.nandlal@gmail.com 


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