कृष्णावतार

Sunday, Feb 22, 2015 - 04:16 PM (IST)

सारे समाचार भीष्म पितामह को नित्य ही मिलते रहते थे । दुर्योधन, कर्ण और शकुनि आदि ने इस विरोध को कुचल डालने का विचार किया परंतु भीष्म पितामह आड़े आ गए और उन्होंने उनसे साफ कह दिया कि, ‘‘समस्त प्रजाजन मेरे भाई बंधु और बालक समान हैं । ’’इधर गुरु वरुण ने भीष्म पितामह से विचार-विमर्श किया और समझ लिया कि आज विदुर गए तो कल को हमारी बारी है ।

इसलिए उन्होंने अपने सेना नायकों को आदेश दे दिया कि ‘‘मेरी आज्ञा के बिना सेना की कोई भी टुकड़ी किसी पर अत्याचार करने के लिए न ले जाई जाए । आज्ञा देने वाला चाहे कोई भी हो । चाहे वह राजा हो या उनका कोई पुत्र। यदि किसी अन्य राजा के सैनिक प्रजा पर अत्याचार करें तो मेरी तरफ से तुम सबको खुली छुट्टी है कि अत्याचार करने वालों का विनाश किए बिना चैन से न बैठो ।’’ इस तरह के

घटनाक्रम के बीच धृतराष्ट्र अपने मंत्री संजय का सहारा लेकर भीष्म पितामह के पास पहुंचे। धृतराष्ट्र ने उन्हें दंडवत की और आसन पर बैठ गए । उनका चेहरा उतरा हुआ था। वह दुख और चिंता से निढाल हो रहे थे । उन्हें गुमसुम अंधे नेत्रों को इधर-उधर घुमाते देख कर भीष्म पितामह ने पूछा, ‘‘क्या बात है? कैसे आए वत्स ?’’ ‘‘पितामह...आपका आदेश...प्रजाजन...दुर्योधन और मेरे अन्य पुत्रों का...’’ ‘‘वध कर डालेंगे। मेरे आदेश के कारण ।

यही न ?’’ भीष्म पितामह गरज उठे तथा बोले, ‘‘और तुम्हारा भी । क्यों यही कहना चाहते हो न तुम ? ठीक ही करेंगे प्रजाजन । तुम सब ने अपराध ही ऐसा किया है । तुम सब को इसका दंड देने का प्रजा को पूर्ण अधिकार है ।’’ ‘‘परम पूज्य पितामह हम सब आपकी शरण में हैं । आपके सहारे ही तो यह राज-काज चल रहा है ।’’ धृतराष्ट्र ने कहा । 

Advertising