शादी में दूल्हा क्यों पहनता है सेहरा और क्यों चढ़ता है घोड़ी ?
punjabkesari.in Thursday, Feb 05, 2015 - 08:15 AM (IST)

भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति अति प्राचीन और विशिष्ट है। हिंदू संप्रदाय धर्म के आधार पर वेदों को मानने वाला धर्म निष्ठ संप्रदाय है। अगर विवाह संस्कार कि बात कि जाए तो शास्त्रों के अनुसार अग्नि को साक्षी मानकर तथा सात वचनों के आदान-प्रदान कर वर-वधु एवं उनके परिजनों द्वारा किए गए संस्कार को "वेदी" अथवा "वेदि पूजन" कहा जाता है।
भारत में विवाह एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। यहां वर अथवा दुल्हे को राजा संबोधित किया जाता है। विवाह के अवसर पर वर जामा पहनकर हाथ में तलवार लेकर, मस्तक पर फूलों का सेहरा बांधकर घोडी पर चढकर वीर भेस में विवाह हेतु आता है। पर क्या आप ये जानते हैं शादी में दूल्हा क्यों पहनता हैं सेहरा और क्यों चढ़ता हैं घोडी ? इस लेख के माध्यम से शास्त्रानुसार हम अपने पाठकों को इस संदर्भ में बताते हैं।
सेहराबंदी क्यों ?
सेहरा एक फारसी भाषा का शब्द है जिसे आम हिन्दुस्तानी भाषा ने अपना लिया है। हिन्दी भाषा में सेहरे को विवाह मुकुट बुलाया जाता है तथा इस मुकुट में फूलों या सुनहरे रुपहले तारों आदि की बड़ी मालाओं की पंक्ति या पुंज भी सम्मलित होते हैं। आम भाषा में इसे सेहरा, हिन्दी में इसे मुकुट और संस्कृत में इसे किरीट कहा जाता है।
इस मुकुट अथवा सेहराबंदी कि परंपरा आदिकाल में शिव विवाह से समय से चली आ रही है। जब भगवान शंकर ने सोम्य रूप धारण कर आदि शक्ति का वरण किया था। शिव विवाह में भगवान शंकर ने योगी का वेश त्यागकर राजाओं सा श्रृंगार कर अपनी जटाओं को खोलकर मुकुट धारण किया था।
आज भी परंपरा अनुसार भगवान शिव के विवाह की वर्षगांठ महाशिवरात्रि के रूप में मनाने की परंपरा चली आ रही है। शिव-पार्वती के विवाह की इस महारात्रि को विशेष पूजा होती है। इस पूजा में दूध, दही, घी, शहद, सात धान, फलों के रस, इत्र और गंगाजल आदि से अभिषेक किया जाता है। अभिषेक के पश्चात सेहरे के दर्शनों का लाभ भी दर्शनार्थियों को प्राप्त होता है। धार्मिक दृष्टिकोण से विवाह मुकुट अथवा सेहरा पंचदेव से सुशोभित नर का श्रृंगार भी है।
क्यों चढ़ता हैं घोडी दूल्हा ?
दूल्हे को घोड़ी पर ही क्यों बैठाते हैं घोड़े पर क्यों नहीं अथवा किसी और सवारी पर क्यों नहीं। पौराणिक काल से ही स्त्री को "धन" कि संज्ञा दी जाती है। अतः पुरातन समय में शादियों के समय स्त्रीधन को पाने के लिए लड़ाइयां लड़ी जाती थी। शास्त्रों में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जब दूल्हे को दुल्हन के लिए रणभूमि में युद्ध करना पड़ा।
श्रीराम और सीता के स्वयंवर के समय भी ऐसा प्रसंग हुआ था। जब श्रीराम के गले में वरमाला डालने सीता जी जा रही थी तो वहां मौजूद सभी विरोधी राजाओं ने अपनी-अपनी तलवार निकाल ली थी और श्रीराम से युद्ध करने की तैयारी कर ली थी परंतु परशुराम के आने के बाद सभी को ज्ञात हो गया कि श्रीराम से युद्ध साक्षात् मृत्यु से युद्ध होगा और वहां युद्ध टल गया।
वहीं श्री कृष्ण और रुकमणि के विवाह के समय भी युद्ध हुआ था। ऐसे कई प्रसंग हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार रविवारीय शुक्ला सप्तमी को ही सूर्य और उनकी चार संतान यम, यमी, तपती व श्नैश्चर की उत्पत्ति हुई थी। इसी दिन सूर्य को त्यागकर घोड़ी का रूप धारण करके विचरण करती हुई उनकी पत्नी रूपा का मिलन भी काम्यकवन में हुआ था।
जिस प्रकार धर्म में स्त्री को धन माना जाता है उसी भांति घोड़ी को उत्त्पत्ति कि संज्ञा दी जाती है। घोड़ा वीरता और शौर्य का प्रतिक माना जाता है और युद्ध के मैदान में घोड़े की ही अहम भूमिका होती है। दूल्हे का रूप भी किसी रणवीर के समान रहता है उसकी भी यही वजह है। इन्हीं कारणों से दूल्हे को घोड़ी पर बैठाने की परंपरा शुरू की गई।
आचार्य कमल नंदलाल
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